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देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद का गांव जीरादेई (Jiradei)

जब हम देश के पहले राष्ट्रपति, की बात करते हैं, तो हमारे सामने एक ऐसे नेता की छवि उभरती है जो अपनी विद्वता, ईमानदारी और असाधारण सादगी के लिए जाने जाते थे।  उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, महात्मा गांधी के करीबी रहे, और संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में हमारे संविधान का मसौदा तैयार करने में नेतृत्व किया।    

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डॉ. प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर, 1884 को बिहार के सीवान ज़िले के एक छोटे से गांव जीरादेई में हुआ था।  यह जगह सिर्फ उनका जन्मस्थल नहीं है, बल्कि उन मूल्यों का भी प्रतीक है जिसने एक सामान्य ग्रामीण लड़के को देश के सर्वोच्च पद तक पहुँचाया।   

आज जीरादेई (यानी उनका पैतृक गांव) हमारी राष्ट्रीय विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि यह गांव खुद कई बड़ी मुश्किलों से जूझ रहा है।    

Jiradei की ज़मीनी हकीकत और दर्द

जीरादेई, जो सीवान ज़िला मुख्यालय से लगभग 15 किलोमीटर दूर है, मुख्य रूप से एक कृषि प्रधान गांव है।  2011 की जनगणना के अनुसार, यहां लगभग 3,292 लोग रहते हैं, और यह गांव लगभग 157 हेक्टेयर में फैला हुआ है।    

जीरादेई को एक समय केंद्र सरकार की ‘सांसद आदर्श ग्राम योजना’ (SAGY) के तहत गोद लिया गया था। ग्रामीणों को उम्मीद थी कि अब तो यह ऐतिहासिक गांव विकास की किरणें देखेगा।  लेकिन हकीकत यह है कि आज़ादी के इतने साल बाद भी यह गांव बदहाली का शिकार है।    

तीन बड़ी चुनौतियाँ जो गांव को पीछे खींच रही हैं:

  1. शिक्षा और रोज़गार का अभाव: डॉ. राजेंद्र प्रसाद ज्ञान के प्रतीक थे, लेकिन उनके गांव में इंटरमीडिएट से ऊपर की पढ़ाई या कोई तकनीकी ट्रेनिंग सेंटर नहीं है।  इसी वजह से, जीरादेई के नौजवान रोज़गार की तलाश में पंजाब, हरियाणा, मुंबई, दिल्ली या खाड़ी देशों में जाकर कम-कुशल मज़दूरी करने को मजबूर हैं। यह एक ऐसी विडंबना है, जो ग्रामीण विकास की विफलता को दर्शाती है।    
  2. बुनियादी सुविधाओं का टूटना: गांव में स्वच्छता अभियान का कोई असर नहीं दिखता। डॉ. प्रसाद के घर तक जाने वाली सड़क पर खुली नालियों से हमेशा बदबू आती रहती है, और सड़कों के किनारे कूड़े का ढेर लगा रहता है।  स्वास्थ्य केंद्र तो हैं, लेकिन उनमें इमरजेंसी या प्रसव (maternity) जैसी मूलभूत सेवाएं नहीं हैं। यहां तक कि कई ज़रूरी सरकारी दफ्तर भी अपने भवन के बजाय अस्थायी जगहों से चल रहे हैं।    
  3. कनेक्टिविटी की कमी: पटना के लिए चलने वाली सीधी बस सेवा भी बंद हो चुकी है, और लोग दशकों से एक्सप्रेस ट्रेनों के ठहराव की मांग कर रहे हैं, जो आज भी पूरी नहीं हुई है।    

विरासत का संरक्षण—डॉ. प्रसाद का पैतृक आवास

डॉ. राजेंद्र प्रसाद का पैतृक आवास उनके जीवन की सादगी का जीता-जागता प्रमाण है।    

राष्ट्रीय स्मारक और संग्रहालय

इस घर को 26 जुलाई, 2001 को भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय महत्व का संरक्षित स्मारक घोषित किया गया था, और इसकी देखभाल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा की जाती है।  इसे एक ‘ऐतिहासिक गृह संग्रहालय’ (Historic House Museum) के रूप में संरक्षित किया गया है।    

  • ऐतिहासिक महत्व: परिसर में वह घर है जहां उनका जन्म हुआ था, साथ ही एक ऐतिहासिक बैठक हॉल भी है, जहां महात्मा गांधी जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने महत्वपूर्ण बैठकें की थीं।    
  • भौतिक विवरण: परिसर के मैदान अच्छी तरह से बनाए गए हैं, जो संरक्षण के प्रति स्थानीय अधिकारियों की प्रतिबद्धता दिखाते हैं।  परिसर से बाहर निकलते ही बच्चों के लिए एक छोटा सा पार्क और झूले लगाए गए हैं, जो गांव के बच्चों के लिए एक नया विकास है।  परिसर में एक पुराना कुआं भी मौजूद है, जिसका उपयोग पहले पानी निकालने के लिए होता था।    
  • देखभाल की ज़रूरत: एक दुःखद बात यह है कि घर के आंतरिक हिस्से, खासकर उनके बड़े भाई महेंद्र प्रसाद का कमरा, अभी भी बंद और जर्जर हालत में है, जिसे तुरंत मरम्मत की ज़रूरत है।    

डॉ. राजेंद्र प्रसाद के जीवन से जुड़ी ज़्यादातर कीमती दस्तावेज़, कलाकृतियाँ और उनकी लाइब्रेरी जीरादेई में नहीं, बल्कि पटना स्थित सदाकत आश्रम के राजेंद्र स्मृति संग्रहालय में रखी गई हैं, जो उनकी कर्मभूमि थी।    

विकास में सबसे बड़ी रुकावट: ASI की 300 मीटर की दीवार

जीरादेई के लिए सबसे बड़ी, सबसे गंभीर और भावुक करने वाली समस्या वह कानून है जो डॉ. राजेंद्र प्रसाद के घर की सुरक्षा के लिए बनाया गया है।    

यह कानून है प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम, 2010 (AMASR Act)। इस एक्ट के तहत, ASI संरक्षित स्मारक के चारों ओर एक सुरक्षा घेरा बनाता है:    

  1. 100 मीटर का क्षेत्र: यहां किसी भी तरह का नया निर्माण पूरी तरह मना है।
  2. 300 मीटर का क्षेत्र: यहां निर्माण की अनुमति मिल सकती है, लेकिन इसके लिए ASI से कठिन और सख्त अनुमति लेनी पड़ती है।

चूंकि जीरादेई गांव बहुत ही सघन और छोटा है (केवल 157 हेक्टेयर), यह 300 मीटर का घेरा गांव के लगभग तीन-चौथाई हिस्से को अपनी चपेट में ले लेता है।    

इसका भयानक असर यह होता है कि गांव के लोग अपने पुश्तैनी और जर्जर हो चुके घरों की मरम्मत या आधुनिकीकरण नहीं कर सकते।  यहां तक कि, कुछ स्थानीय लोगों पर तो निर्माण की कोशिश करने पर ASI ने पुलिस में शिकायत (FIR) तक दर्ज करा दी है।    

यह स्थिति पूरे गांव को कानूनी रूप से पिछड़ेपन के पिंजरे में बंद कर देती है। यह एक ऐसी स्थिति है जहां राष्ट्रीय विरासत का संरक्षण, स्थानीय निवासियों के जीवन और विकास का दुश्मन बन गया है।    

यहां तक कि एक संसदीय पैनल ने भी माना है कि यह नियम (जो अजंता-एलोरा जैसे बड़े स्मारकों पर भी लागू होता है) जीरादेई जैसे साधारण ऐतिहासिक घरों पर लागू करना सही नहीं है। पैनल ने सिफारिश की है कि इन नियमों को ‘वास्तविक’ बनाया जाए और स्मारकों के महत्व के अनुसार प्रतिबंध के दायरे को कम किया जाए।    

Jiradei के लिए सच्ची श्रद्धांजलि

जीरादेई को डॉ. राजेंद्र प्रसाद की विरासत के अनुरूप विकसित करने के लिए कागज़ी योजनाओं और बैठकों से आगे बढ़कर काम करना होगा।

  1. कानूनी बाधा हटाएँ: सबसे पहला और ज़रूरी काम है ASI के 300 मीटर के निर्माण प्रतिबंध में संशोधन करना। जब तक लोग अपने घर की मरम्मत नहीं कर सकते, गांव साफ और विकसित नहीं हो सकता।    
  2. शिक्षा और कौशल केंद्र: युवाओं का पलायन रोकने के लिए तुरंत एक उच्च स्तरीय तकनीकी या कौशल विकास केंद्र स्थापित किया जाना चाहिए। यह कदम डॉ. प्रसाद की शिक्षा की विरासत को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।    
  3. बुनियादी ढांचे में सुधार: खुली नालियों और गंदगी को प्राथमिकता के आधार पर ठीक किया जाए।  साथ ही, बिहार राज्य पर्यटन विकास निगम (BSTDC) कनेक्टिविटी सुधारने (जैसे बंद बस सेवा और एक्सप्रेस ट्रेनों का ठहराव) और पर्यटकों के लिए ज़रूरी सुविधाओं का विकास करे।    

जीरादेई को केवल एक स्मारक नहीं, बल्कि देश के पहले राष्ट्रपति की सादगी और ज्ञान पर आधारित एक जीवंत ‘विरासत गांव’ (Heritage Village) के रूप में फिर से पहचान दिलाने की ज़रूरत है। तभी हम इस महान विभूति की जन्मभूमि के साथ न्याय कर पा

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