जब लंदन के कला प्रेमियों के घरों में बिहार के एक छोटे से गांव में बना खिलौना सजता है, तो यह कहानी बनती है सिक्की कला की। मधुबनी के रैयाम गांव की मुन्नी देवी आज सिर्फ सिक्की से खूबसूरत चीजें नहीं बनातीं, बल्कि अपने गांव की 50 से ज्यादा महिलाओं का भविष्य भी संवार रही हैं। महीने के 20,000 रुपये कमाती हैं मुन्नी देवी, और बिक्री से भी 20 फीसदी हिस्सा मिलता है.

कैसे शुरू हुई यह अनोखी यात्रा?
मुन्नी देवी की शादी छोटी उम्र में हो गई थी। सास को देखकर उन्होंने सिक्की कला सीखी। जब उन्होंने महसूस किया कि इससे पैसे कमाए जा सकते हैं, तो बच्चों की पढ़ाई के लिए उन्होंने सास-ससुर को मनाया कि वे सिक्की का काम करेंगी। आज वे कहती हैं – “रोटी को सिक्की की टोकरी में रखोगे तो सेहत के लिए अच्छा है, प्लास्टिक में रखोगे तो खराब। सिक्की सिर्फ पर्यावरण के लिए नहीं, आपकी सेहत के लिए भी अच्छा है”.
राष्ट्रपति से पुरस्कार पाने वाली कला
1969 में मिथिला के रैयाम गांव की विंदेश्वरी देवी को इस कला के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति जाकिर हुसैन ने राष्ट्रीय पुरस्कार दिया था. आज सुधीरा देवी और चंद्र कुमार दंपति इस कला को 25 सालों से आगे बढ़ा रहे हैं। दोनों को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। इस परिवार में उनकी मां, दो बेटे और दो बेटियां, सभी सिक्की से सामान बनाते हैं.
Sikki grass artwork depicting a traditional rural scene with a woman carrying sticks and a thatched house, crafted from golden grass on a black background
घास से सोने जैसी चमक
सिक्की वास्तव में एक खास घास है जो बारिश के बाद नदी-तालाबों के किनारे दलदली इलाकों में उगती है। इसे काटकर सुखाया जाता है, फिर उबालकर रंगों में डुबोया जाता है। फिर ‘टकुआ’ नाम की 6 इंच की सुई जैसे औजार से इसे बुना जाता है। इतनी बारीकी से बुना जाता है कि अंदर की मुंज घास दिखती ही नहीं.
लाखों रुपये में बिकती हैं पेंटिंग्स
मधुबनी के धीरेंद्र दास ने सिक्की कला को एक नया आयाम दिया है। उन्होंने इससे फोटो जैसी पेंटिंग्स बनानी शुरू कीं। आज उनकी एक पेंटिंग की कीमत 10,000 से लेकर लाखों रुपये तक है। NIFT (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी) के छात्र उनसे ट्रेनिंग लेने आते हैं.
Traditional sikki grass woven container from Bihar with vibrant green and magenta patterns
बेटी की विदाई का खास हिस्सा
पुराने समय में बेटी की शादी में सिक्की के सामान दहेज में जाना अनिवार्य था। गरीब परिवार जो असली हाथी-घोड़े नहीं दे सकते थे, वे घास से हाथी, घोड़े, सवार जैसे खूबसूरत खिलौने बनाकर देते थे। बेटी की कला देखकर उसके ससुराल वाले उसकी प्रतिभा का अंदाजा लगाते थे.
विदेश तक पहुंच रही है सिक्की की चमक
लंदन, पेरिस और मुंबई तक बिक रहे हैं सिक्की के सामान। Amazon और अन्य ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर ये प्रोडक्ट्स उपलब्ध हैं। एक छोटी पेंटिंग 1,893 रुपये से शुरू होती है और बड़ी पेंटिंग्स 16,000 रुपये तक की हैं.
Handmade sikki grass containers from Bihar showcasing intricate weaving and vibrant colors
पर्यावरण की दोस्त कला
प्लास्टिक के जमाने में सिक्की 100% बायोडिग्रेडेबल है। यह हल्की होती है, कितने भी समय तक चलती है, और जब चाहें तो मिट्टी में मिल जाती है। आज की पीढ़ी जो इको-फ्रेंडली चीजें खोज रही है, उनके लिए सिक्की एकदम परफेक्ट है.
वाल्मीकि नगर में पर्यटकों की पसंद
वाल्मीकि नगर टाइगर रिजर्व आने वाले विदेशी पर्यटक सिक्की के सामान बहुत पसंद करते हैं। यहां के गेस्ट हाउस में सिक्की के सामान की दुकान है जहां पर्यटक इन्हें खरीदते हैं.
पश्चिम चंपारण में नया जीवन
बागहा की 200 से ज्यादा आदिवासी महिलाएं आज सिक्की कला से रोजगार कमा रही हैं। ट्रेनर रानी देवी कहती हैं – “यह हमारे लिए सिर्फ रोजगार नहीं, हमारी पहचान है”। ये महिलाएं मेलों में स्टॉल लगाती हैं और NGO की मदद से ऑनलाइन मार्केटिंग भी करती हैं.
फैशन की दुनिया में भी धूम
MS यूनिवर्सिटी के छात्रों ने सिक्की को कपड़ों पर भी इस्तेमाल करना शुरू किया है। उन्होंने बांस की घास के पैटर्न से इको-फ्रेंडली कपड़े बनाए हैं, जिससे कलाकारों को और ज्यादा रोजगार के मौके मिल रहे हैं.
क्या बनता है सिक्की से?
टोकरियां, ट्रे (मौनी), डब्बे (पौती, झप्पा), फूलदान (सजी), खिलौने, गुड़िया, झूमर, कंगन, पंखे, चटाई, वॉल हैंगिंग, और अब तो सिक्की के कानों के झुमके भी बन रहे हैं जो 350 रुपये से शुरू होते हैं.
GI टैग का गौरव
2018 में सिक्की कला को जियोग्राफिकल इंडिकेशन (GI) टैग मिल चुका है। यह सम्मान सिर्फ मखाना और मधुबनी पेंटिंग के साथ मिला है, जो इसकी खासियत को दर्शाता है.
आज की जरूरत, कल की विरासत
यह कला साबित करती है कि परंपरा और आधुनिकता एक साथ चल सकते हैं। जो घास कभी गांव की महिलाओं का शौक हुआ करती थी, आज उनकी आमदनी का जरिया बन चुकी है। सिक्की सिर्फ एक कला नहीं, यह बिहार की गरीबी का सौंदर्य है, महिलाओं की आजादी का प्रतीक है, और पर्यावरण की रक्षा का जरिया भी.
















