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मोकामा की गूँज
बिहार में मोकामा जैसी किसी भी बड़ी आपराधिक घटना की ख़बर जब राष्ट्रीय मीडिया में आती है, तो यह सिर्फ एक स्थानीय त्रासदी नहीं रह जाती। यह तुरंत एक पुराना और नकारात्मक लेबल—’जंगल राज’ —को दोबारा सक्रिय कर देती है। मीडिया का यह शॉर्टकट बाहर के लोगों के लिए एक आसान तरीक़ा बन जाता है: बिहार मतलब अस्थिरता और उच्च जोखिम। इस वजह से राज्य की छवि (Chhavi kharab Hogi) इतनी तेज़ी से ख़राब होती है कि देश के कोने-कोने में रहने वाले लाखों बिहारी प्रवासियों—छात्रों, पेशेवरों, और मज़दूरों—पर एक अघोषित ‘पहचान का टैक्स’ लग जाता है। यह टैक्स उनकी व्यक्तिगत योग्यता से पहले उनकी जन्मभूमि के नाम पर वसूला जाता है।
मीडिया और अपराध: ‘जंगल राज’ लेबल क्यों बार-बार सक्रिय होता है?
यह समझना ज़रूरी है कि मोकामा की घटना कोई इकलौती बात नहीं है। यह ऐसी घटनाओं की एक लंबी कड़ी का हिस्सा है, जो बार-बार ‘जंगल राज’ की पुरानी फ़ाइल को खोल देती है। उदाहरण के लिए, जब किसी बड़े उद्योगपति के हाई-प्रोफाइल अपहरण की ख़बर आती है, या जब चुनाव के दौरान ज़िला स्तर पर कोई गंभीर राजनीतिक झड़प होती है, तो राष्ट्रीय मीडिया इसे सिर्फ़ ‘कानून-व्यवस्था की चुनौती’ नहीं मानता। बल्कि, ये घटनाएँ तुरंत यह मैसेज देती हैं कि ‘बिहार में सब कुछ ठीक नहीं है’। मीडिया इन अलग-अलग घटनाओं को एक ही धागे में पिरोकर दिखाता है ताकि बाहर के लोगों के मन में यह बात पक्की हो जाए कि बिहार में अस्थिरता हमेशा बनी रहती है। यह लगातार नेगेटिव खबरें आना ही इस ‘टैक्स’ को हमेशा सक्रिय (active) रखता है, जिसका खामियाजा बाहर रह रहा हर बिहारी उठाता है।
नौकरी और आवास में सीधा नुकसान : इंटरव्यू हॉल से किराए के घर तक
यह ‘टैक्स’ सीधे तौर पर प्रवासियों को नुकसान (Nuksan) पहुँचाता है। जब एक बिहारी युवा नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जाता है (Jab vah interview ke dekha Jaega Naukari ke liye to usko kya nuksan honge), तो इंटरव्यू लेने वाले के मन में छिपी हुई आशंकाएँ जाग जाती हैं। इसका नतीजा यह होता है कि उन्हें बाकियों के मुक़ाबले ज़्यादा जाँच, कम सैलरी या ‘सांस्कृतिक रूप से फ़िट न होने’ के बहाने अस्वीकृति झेलनी पड़ती है। इसी तरह, शहरों में किराए का घर ढूँढना भी एक मुश्किल लड़ाई बन जाता है। पंजाब या बेंगलुरु जैसे शहरों में मकान मालिक और हाउसिंग सोसाइटी अक्सर नकारात्मक रूढ़िवादिताओं के आधार पर बिहारी प्रवासियों को सीधे किरायेदारी से मना कर देते हैं या उनसे ज़्यादा सिक्योरिटी डिपॉज़िट (जमा राशि) मांगते हैं। इस वजह से उन्हें शहर के बाहरी, कम सुविधा वाले इलाकों में रहना पड़ता है, जिससे उनकी ऊपर उठने की रफ़्तार कृत्रिम रूप से धीमी हो जाती है।
पहचान छिपाने की मजबूरी
सबसे गहरा और गूढ़ नुकसान मनोवैज्ञानिक होता है। एक बिहारी छात्र को अपनी पहचान को लेकर लगातार बचाव की मुद्रा में रहना पड़ता है , जिससे आंतरिक शर्म और तनाव पैदा होता है। वे महसूस करते हैं कि उनकी अपनी सांस्कृतिक विरासत उनकी सफलता में रुकावट है, और कई युवा अपनी पहचान छिपाने लगते हैं। मोकामा जैसी हर नकारात्मक ख़बर, प्रवासियों के मानसिक स्वास्थ्य पर एक नया वार करती है। इसलिए, बिहार की छवि (Chhavi) की सुरक्षा करना अब सिर्फ़ राजनीति या दिखावे का विषय नहीं है, बल्कि यह अपने नागरिकों की आर्थिक गतिशीलता और आत्म-सम्मान को बचाने की एक अनिवार्य ज़रूरत है। जब तक इस प्रणालीगत कलंक का मुक़ाबला नहीं किया जाता, तब तक बिहारी प्रवासी बिना कोई गलती किए, इस पहचान का बोझ ढोते रहेंगे।














