बिहार की चर्चा जब भी होती है, अक्सर राजनीति या खेती-किसानी की बातें ही सामने आती हैं। लेकिन 13 अगस्त 2025 को बिहार कैबिनेट ने एक ऐसा फैसला लिया, जो राज्य की बदलती आर्थिक तस्वीर को बयां करता है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में गया जिले के गुरारू (Guraru) इंडस्ट्रियल एरिया में ‘मेसर्स प्रभावती टेक्सटाइल मिल्स’ (M/s Prabhavati Textile Mills) को मंजूरी दी गई।
यह खबर केवल एक फैक्ट्री खुलने की नहीं है; यह कहानी है बिहार के ‘उपभोक्ता’ (Consumer) से ‘उत्पादक’ (Producer) बनने की। आइए, आसान भाषा में समझते हैं कि यह प्रोजेक्ट क्या है, इससे आपके और हमारे जीवन पर क्या असर पड़ेगा और यह बिहार के लिए इतना खास क्यों है।

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1. क्या है यह प्रोजेक्ट और क्यों है चर्चा में?
सबसे पहले आंकड़ों पर नज़र डालते हैं। सरकार ने इस फैक्ट्री के लिए ₹35.14 करोड़ के निवेश पर वित्तीय प्रोत्साहन (Financial Incentive) को मंजूरी दी है । इसका मतलब है कि सरकार ने मान लिया है कि यह कंपनी इतना पैसा मशीन और प्लांट में लगा रही है, और अब उसे सरकारी पॉलिसी के तहत सब्सिडी मिलेगी।
यहाँ क्या बनेगा? इस फैक्ट्री में मुख्य रूप से सर्दियों के कपड़े और घरेलू इस्तेमाल की चीजें बनेंगी:
- पोलर फ्लीस (Polar Fleece): यह वही कपड़ा है जिससे आज-कल की फैशनेबल जैकेट और स्वेटर बनते हैं।
- मिंक ब्लैंकेट (Mink Blankets): शादियों में गिफ्ट किए जाने वाले और कड़ाके की ठंड में काम आने वाले भारी और मुलायम कंबल।
- बेडशीट और केसमेंट: चादरें और परदे ।
अब तक ये सारा सामान बिहार में लुधियाना (पंजाब) या पानीपत (हरियाणा) से आता था। आप खुद सोचिए, जो कंबल 1000 किलोमीटर दूर से ट्रक में लदकर आता है, अगर वह गया में ही बनने लगे, तो ट्रांसपोर्ट का खर्च बचेगा और बिहार के लोगों को वह सस्ता मिलेगा।
2. व्यापारी से उद्योगपति बनने का दिलचस्प सफर
इस प्रोजेक्ट की सबसे खास बात यह है कि इसे शुरू करने वाले लोग कोई बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी के मालिक नहीं हैं, बल्कि हमारे बीच के ही व्यापारी हैं।
क्रेडिट रेटिंग एजेंसी की रिपोर्ट्स बताती हैं कि इस प्रोजेक्ट के पीछे ‘प्रगति एंटरप्राइज’ (Pragati Enterprise) और ‘बीना ट्रेडर्स’ जैसे स्थानीय फर्मों के प्रमोटर्स हैं । ये लोग पिछले 15 सालों से टेक्सटाइल की ट्रेडिंग (खरीद-बिक्री) कर रहे थे। पहले ये बाहर से माल लाकर बेचते थे, लेकिन अब सरकार की नीतियों से प्रोत्साहित होकर इन्होंने खुद की फैक्ट्री लगाने का फैसला किया है।
यह बिहार के लिए एक बहुत बड़ा बदलाव है। जब राज्य का व्यापारी, जो सिर्फ मुनाफा कमाने में विश्वास रखता है, ‘मैन्युफैक्चरिंग’ (Manufacturing) में पैसा लगाने का जोखिम उठाता है, तो यह साबित करता है कि उसे राज्य के माहौल पर भरोसा है।
3. रोजगार: सिर्फ 237 नौकरियां या कुछ और?
कागजों पर लिखा है कि इस फैक्ट्री से 237 लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा । पहली नज़र में यह संख्या शायद छोटी लगे, लेकिन अर्थशास्त्र में इसे ‘मल्टीप्लायर इफेक्ट’ (Multiplier Effect) कहते हैं।
जब एक फैक्ट्री चालू होती है, तो उसके गेट के बाहर एक पूरी दुनिया बस जाती है:
- माल ढोने के लिए स्थानीय टेम्पो और ट्रक ड्राइवरों को काम मिलता है।
- मजदूरों के लिए चाय-नाश्ते और खाने के होटल खुलते हैं।
- मशीनों की मरम्मत के लिए स्थानीय इलेक्ट्रीशियन और मैकेनिकों की मांग बढ़ती है।
- पैकेजिंग और साफ-सफाई के लिए स्थानीय महिलाओं को काम मिलता है।
खासकर गया के मानपुर इलाके के बुनकरों के लिए, जिन्हें ‘बिहार का मैनचेस्टर’ कहा जाता है, यह एक सुनहरा मौका है। जो कारीगर काम की तलाश में सूरत या दिल्ली की ट्रेनों में धक्के खाते थे, उन्हें अब अपने घर के पास ही सम्मानजनक काम मिल सकेगा ।
4. सरकार की भूमिका: सिर्फ कागजी नहीं, असली मदद
आखिर अचानक ये फैक्ट्रियां क्यों लग रही हैं? इसका श्रेय ‘बिहार टेक्सटाइल और लेदर पॉलिसी 2022’ को जाता है। सरकार ने उद्योगपतियों के लिए अपना खजाना खोल दिया है:
- मशीन खरीदने पर छूट: प्लांट और मशीनरी की लागत पर 15% से 30% तक की सब्सिडी मिलती है ।
- सस्ती बिजली: उद्योग लगाने पर बिजली दर में ₹2 प्रति यूनिट की छूट मिलती है, जो टेक्सटाइल मिलों के लिए बहुत बड़ी राहत है।
- सस्ता कर्ज: इस प्रोजेक्ट के लिए पंजाब नेशनल बैंक (PNB) ने करीब ₹27 करोड़ का लोन मंजूर किया है, जो दिखाता है कि बैंकों का भरोसा भी बिहार के उद्योगों पर बढ़ रहा है ।
इसके अलावा, कैबिनेट ने गया के डोभी (Dobhi) में 1300 एकड़ जमीन पर एक विशाल इंडस्ट्रियल क्लस्टर (IMC) बनाने और गया एयरपोर्ट के विस्तार को भी मंजूरी दी है । यानी, आने वाले समय में गया सिर्फ धार्मिक नगरी नहीं, बल्कि एक इंडस्ट्रियल हब के रूप में जाना जाएगा।
5. चुनौतियां अब भी बाकी हैं
तस्वीर जितनी सुनहरी दिख रही है, राह उतनी आसान भी नहीं है। एक निष्पक्ष विश्लेषण के लिए हमें चुनौतियों (Challenges) को भी देखना होगा:
- देरी का जोखिम: रिपोर्ट्स के मुताबिक, इस प्रोजेक्ट को अप्रैल 2024 में शुरू होना था, लेकिन अब इसके मार्च 2025 तक पूरी तरह शुरू होने की उम्मीद है । प्रोजेक्ट लेट होने से लागत बढ़ जाती है।
- कच्चा माल: बिहार में अभी भी अच्छी क्वालिटी का धागा या पॉलिएस्टर फाइबर नहीं बनता। यह माल अभी भी बाहर से ही मंगाना पड़ेगा।
- बाजार का मुकाबला: पानीपत की पुरानी और स्थापित मिलों से मुकाबला करना आसान नहीं होगा। ‘मेड इन बिहार’ ब्रांड को लोगों के दिलों में जगह बनाने के लिए क्वालिटी और कीमत दोनों पर काम करना होगा।
उम्मीद की नई किरण
तमाम चुनौतियों के बावजूद, गुरारू में लग रही ‘माँ प्रभावती टेक्सटाइल मिल्स’ बिहार की बदलती हुई कहानी का एक अहम हिस्सा है। यह सिर्फ एक बिल्डिंग या मशीनों का ढांचा नहीं है, बल्कि यह बिहार के उन हजारों युवाओं के लिए एक उम्मीद है जो अपनी मिट्टी में रहकर काम करना चाहते हैं।
₹35 करोड़ का यह निवेश एक शुरुआत है। अगर यह प्रयोग सफल रहा, तो कल को बिहार के और भी व्यापारी ‘दुकानदार’ से ‘फैक्ट्री मालिक’ बनने का सपना देख सकेंगे। और जिस दिन बिहार का कपड़ा बिहार के ही बाज़ारों पर राज करेगा, उस दिन हम सही मायनों में कह सकेंगे कि राज्य ने तरक्की की है।


















