डॉ. मानस बिहारी वर्मा (1943–2021) का जीवन किसी दो अलग-अलग कहानियों जैसा था, लेकिन दोनों कहानियों का हीरो एक ही था: देश के लिए कुछ बड़ा करने का जज़्बा। उन्होंने अपनी आधी ज़िंदगी देश की रक्षा के लिए सबसे बेहतरीन चीज़ बनाने में लगा दी – यानी हमारा स्वदेशी लड़ाकू तेजस। और जब उनका काम पूरा हुआ, तो उन्होंने अपनी बाकी की ज़िंदगी अपने गाँव, बिहार के बच्चों के भविष्य को सँवारने में लगा दी ।
सोचिए, एक इंसान जिसने भारत को सुपरसोनिक जेट बनाने में मदद की, वही इंसान बाद में एक साधारण शिक्षक बनकर गाँव की धूल-मिट्टी में लौट आया। इसी दोहरी विरासत के लिए उन्हें 2018 में पद्म श्री सम्मान मिला ।

डॉ. मानस बिहारी वर्मा : आसमान का हीरो (35 साल का सफ़र)
मानस बिहारी वर्मा का जन्म 1943 में बिहार के दरभंगा जिले के एक छोटे से गाँव बौर में हुआ था । बिहार के इस लाल ने गाँव से पढ़ाई पूरी करने के बाद, पटना के इंजीनियरिंग कॉलेज (जो अब एनआईटी पटना है) से बी.ई. किया, और फिर कलकत्ता यूनिवर्सिटी से ‘जेट प्रोपल्सन’ में मास्टर्स की डिग्री ली ।
1970 में, वह DRDO (रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन) से जुड़े । अगले 35 सालों तक, वह बैंगलोर, नई दिल्ली और कोरापुट जैसे रक्षा केंद्रों में काम करते रहे । लेकिन उनके करियर का सबसे बड़ा मोड़ आया LCA (लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट) तेजस प्रोजेक्ट में। तेजस भारत का पहला स्वदेशी सुपरसोनिक लड़ाकू विमान था । डॉ. वर्मा ही वह मुख्य व्यक्ति थे जिन्होंने इस तेजस के सभी मैकेनिकल सिस्टम यानी मशीनरी की डिज़ाइन तैयार की थी ।
जब दुनिया ने दरवाज़ा बंद कर दिया
तेजस को बनाना आसान नहीं था। 1998 में जब भारत ने पोखरण-II परमाणु परीक्षण किया, तो अमेरिका और बाकी देशों ने हमें ज़रूरी तकनीक और पुर्जे देने से मना कर दिया (प्रतिबंध लगा दिए) । डॉ. वर्मा याद करते थे कि इसी वजह से तेजस प्रोजेक्ट में देरी हुई। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने अपनी टीम का नेतृत्व किया और वो 50 ज़रूरी पुर्जे, जो विदेश से नहीं मिल सकते थे, उन्हें भारत में ही बनाना शुरू कर दिया । यह एक बहुत बड़ी जीत थी, जिसने साबित कर दिया कि भारत खुद अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है ।
कलाम कनेक्शन: एक अटूट दोस्ती
डॉ. वर्मा और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम बहुत करीबी दोस्त और सहयोगी थे । दोनों ने बैंगलोर की एयरोनॉटिकल डेवलपमेंट एजेंसी (ADA) में साथ काम किया था । डॉ. वर्मा हमेशा कहते थे कि कलाम साहब उनके लिए एक महान गुरु और प्रेरणा थे, जिन्होंने उन्हें काम पर ध्यान केंद्रित करना सिखाया ।
यह दोस्ती सिर्फ दफ़्तर तक सीमित नहीं थी। जब डॉ. वर्मा ने रिटायर होने के बाद बिहार में शिक्षा का काम शुरू किया, तो कलाम साहब ने उनका पूरा साथ दिया। 2012 में जब कलाम साहब को एक करोड़ रुपये का पुरस्कार मिला, तो उन्होंने एक पल की भी देरी किए बिना, वह सारी रकम बिहार में डॉ. वर्मा के सामाजिक मिशन के लिए दान कर दी ।
दरभंगा : गाँव की पाठशाला
2005 में डीआरडीओ से प्रतिष्ठित वैज्ञानिक के तौर पर रिटायर होने के बाद , डॉ. वर्मा के पास आराम की ज़िंदगी जीने के लिए सब कुछ था, लेकिन उन्होंने एक साधारण सा जीवन चुना। वह बैंगलोर की चकाचौंध छोड़कर सीधे अपने गाँव बौर (दरभंगा, बिहार) लौट आए । उन्होंने कहा था, “जब मैं बैंगलोर से अपने गाँव आया, तो मेरा एकमात्र मकसद बिहार की शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाना था” ।
सचल विज्ञान प्रयोगशाला (MSL)
उनका सबसे बड़ा काम था सचल विज्ञान प्रयोगशाला (Mobile Science Lab – MSL) । यह मिशन उन्होंने 2010 में शुरू किया, जिसके तहत तीन वैन (वैन में ही लैब बनी हुई थी) तैयार की गईं। इन वैन में भौतिकी, रसायन विज्ञान और जीव विज्ञान के प्रयोगों के लिए पूरा सामान भरा रहता था ।
ये सचल प्रयोगशालाएँ दरभंगा, मधुबनी और सुपौल जैसे बिहार के ग्रामीण जिलों के सरकारी स्कूलों में जाती थीं । उनका लक्ष्य दलित और गरीब बच्चों को विज्ञान और कंप्यूटर की शिक्षा देना था, लेकिन किताबी नहीं, बल्कि प्रयोग करके दिखाने के तरीके से ।
यह एक क्रांतिकारी कदम था। इस प्रोजेक्ट की वजह से, जिन स्कूलों में बच्चे पहले बमुश्किल 10% ही आते थे, वहाँ उपस्थिति बढ़कर 80 से 90 प्रतिशत तक पहुँच गई । 300 से ज़्यादा स्कूलों में 1.5 लाख से ज़्यादा बच्चों तक विज्ञान के प्रयोग पहुँचे । उन्होंने ग्यारह सांध्य शिक्षा केंद्र भी खोले, जहाँ पाँच से सत्तर साल तक के 500 से अधिक लोगों को साक्षरता मिली । इसके अलावा, उन्होंने दरभंगा में महिला इंजीनियरिंग कॉलेज खुलवाने में भी अहम भूमिका निभाई ।
डॉ. वर्मा का सादा जीवन और उनका काम—तेजस की जटिल डिज़ाइन से लेकर गाँव में बच्चों को प्रयोग करके दिखाना—यह बताता है कि देश की सेवा सिर्फ़ एक तरह से नहीं होती। उन्होंने न केवल भारत को आसमान में मज़बूत बनाया, बल्कि बिहार की धरती पर शिक्षा की एक नई नींव भी रखी। बिहार सरकार ने भी उनके शिक्षा के क्षेत्र में किए गए योगदान के लिए 2018 में उन्हें राष्ट्रीय शिक्षा दिवस पर सम्मानित किया ।
उनका निधन 4 मई, 2021 को दरभंगा में दिल का दौरा पड़ने से हुआ । आज भी उनका काम हमें याद दिलाता है कि असली वैज्ञानिक वह है जो अपने ज्ञान को देश की सबसे बड़ी ज़रूरतों को पूरा करने में लगाता है।














