कोसी नदी! यह नाम सिर्फ़ एक नदी का नहीं है, बल्कि बिहार के लाखों लोगों के हर साल के दुख और अथाह संघर्ष का प्रतीक है। इसलिए इसे “बिहार का शोक” (Sorrow of Bihar) कहा जाता है । हर मॉनसून में यह नदी अपना रास्ता बदलती है और ऐसी भयानक बाढ़ लाती है कि गाँव के गाँव बह जाते हैं, घर, खेत, और लोगों की पूरी जमा-पूंजी पानी में डूब जाती है ।यह नदी चीन और नेपाल के हिमालयी पहाड़ों से निकलती है । यहीं पर छिपा है इसके विनाश का सबसे बड़ा राज़:

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कोसी की ताक़त और उसका राज़: गाद का पहाड़
कोसी नदी दुनिया में सबसे ज़्यादा मिट्टी और रेत (गाद) ढोने वाली नदियों में से एक है । हिमालय की ऊँचाई तेज़ी से बढ़ने के कारण, नदी हर साल 100 मिलियन क्यूबिक मीटर गाद अपने साथ लाती है ।
मैदान में आते ही नदी धीमी हो जाती है, और यह सारा मलबा नदी के तल (Bed) में जमा होने लगता है। कल्पना कीजिए, पिछले 50 से ज़्यादा सालों में, इस नदी ने 1,082 मिलियन टन गाद जमा कर दी है!
इस लगातार जमा हो रही गाद के कारण नदी का तल आसपास की ज़मीन से इतना ऊपर उठ जाता है कि नदी एक ऊँचे नाले जैसी बन जाती है। जब पानी बहुत ज़्यादा हो जाता है, तो नदी अपने उस ऊँचे रास्ते को छोड़कर अचानक एक नया, निचला रास्ता ढूंढती है । 2008 में यही हुआ जब कोसी 108 किमी पूर्व की ओर मुड़ गई थी , और लाखों लोगों को तबाह कर दिया था ।
समाधान का धोखा: जब ‘सुरक्षा दीवारें’ ही ख़तरा बन गईं
इस विनाश को रोकने के लिए, 1950 के दशक में भारत और नेपाल ने मिलकर काम शुरू किया। कोसी बैराज बनाया गया और नदी के किनारों पर बाढ़ रोकने वाली ऊँची-ऊँची दीवारें (जिन्हें पहले तटबंध कहा जाता था) बनाई गईं—उत्तरी बिहार में ऐसी 3,700 किलोमीटर से ज़्यादा लंबी दीवारें बनाई गईं ।
इन दीवारों को लोगों की सुरक्षा के लिए बनाया गया था, लेकिन इसने एक बड़ा जाल बुन दिया:
- गाद का क़ैदख़ाना: इन मज़बूत दीवारों ने नदी के विशाल गाद को नदी के संकरे रास्ते के अंदर क़ैद कर दिया। इससे नदी का तल और भी तेज़ी से ऊपर उठने लगा ।
- बड़ा हमला: जब नदी का तल आसपास के खेतों से भी ऊँचा हो जाता है और ये मज़बूत दीवारें टूटती हैं—जैसा 2008 में हुआ था —तो पानी भयंकर तेज़ी और ताक़त से बाहर निकलता है । यह तबाही उन इलाकों में भी आई, जहाँ 200 सालों से बाढ़ नहीं आई थी ।
आज हालत यह है कि ये बाढ़ रोकने वाली दीवारें बनाने के बावजूद, बिहार में बाढ़ से प्रभावित होने वाला क्षेत्र कम होने की बजाय बढ़ गया है ।
बिहार का जज़्बा
बिहार के 38 ज़िलों में से 30 ज़िले (करीब 73% इलाका) लगभग हर साल बाढ़ से लड़ते हैं । यह संघर्ष सिर्फ़ पानी से नहीं है, बल्कि उस ग़रीबी और कमज़ोरी से भी है जो बाढ़ के बाद पीछे छूट जाती है। बिहार की ग्रामीण ग़रीबी दर बहुत ज़्यादा है , और बाढ़ इस ग़रीबी को और गहरा करती है। ख़ासकर महिला मुखिया वाले परिवार (जिनके घर की ज़िम्मेदारी महिलाओं पर होती है) पुरुषों के मुकाबले हर तरह से ज़्यादा असुरक्षित होते हैं ।
टूटने के बाद भी न टूटने वाला हौसला
बाढ़ सब कुछ छीन लेती है—घर, खेत की मिट्टी की ऊपरी परत, पशुधन, और कागज़ात । लेकिन एक चीज़ नहीं छीन पाती, और वो है बिहार के लोगों का हौसला और मानसिक मज़बूती ।
- ज़िंदगी से जुड़ाव: कई लोग यह जानते हुए भी, कि उनकी ज़मीन खतरे में है (जैसे नदी के किनारे वाली ज़मीन), उसे छोड़कर नहीं जाते । उनके लिए, जोखिम उठाना और अपनी पुश्तैनी ज़मीन (जो उनकी रोज़ी-रोटी का इकलौता ज़रिया है) को छोड़ना, इन दो विकल्पों में से, वे हर साल जोखिम लेना चुनते हैं ।
- सामुदायिक हिम्मत: 2008 की आपदा में, जब सरकारी मदद देर से पहुँची , तब गाँवों ने ख़ुद ही एक-दूसरे को बचाया और संघर्ष करने के नए तरीके अपनाए । वे बाढ़ को जीवन का एक हिस्सा मानकर चलते हैं और हर साल नए सिरे से खड़े होते हैं।
बाढ़ के पानी में ‘सैंड फार्मिंग’ (गाद में खेती) जैसे नए तरीके अपनाना , दिखाता है कि बिहार की जनता ने नदी से लड़ना छोड़कर, उसके साथ जीना सीख लिया है। यह जज़्बा ही उनकी सबसे बड़ी ताक़त है।
‘गंदी राजनीति’: स्थायी समाधान की राह में रोड़ा
कोसी की समस्या महज़ भौगोलिक नहीं है, बल्कि सत्ता और भ्रष्टाचार के गठजोड़ का नतीजा है । दुर्भाग्य से, बाढ़ नियंत्रण का काम अब एक सालाना कारोबार बन चुका है, जहाँ दुख लोगों का है, और फ़ायदा कुछ ताक़तवर लोगों का:
- रिपेयर का खेल: हर साल जब ये बाढ़ रोकने वाली दीवारें टूटती हैं, तो उन्हें मरम्मत करने के नाम पर सरकारें हज़ारों करोड़ का फंड जारी करती हैं। इस फंड से ठेकेदारों को हर साल नए कॉन्ट्रैक्ट मिलते हैं, और नेता ‘राहत’ बाँटकर अपनी छवि चमकाते हैं ।
- जवाबदेही ख़त्म: यह चक्र (cyclical disbursements) हर साल चलता है, जिससे स्थायी समाधान की ज़रूरत ही ख़त्म हो जाती है । इस ‘गंदी राजनीति’ ने आपदा को ही सामान्य बना दिया है, और इस विफलता के लिए किसी की जवाबदेही (accountability) तय नहीं होती ।
- कल्पना की कमी: राजनेता सिर्फ झूठे वादे और तुरंत राहत देने तक सीमित रह जाते हैं। वे बड़े, स्थायी बदलावों की कल्पना ही नहीं करते, जिससे इस समस्या का जड़ से समाधान हो सके ।
नियंत्रण नहीं, नदी से दोस्ती
अगर हम बिहार के इस दुख को हमेशा के लिए ख़त्म करना चाहते हैं, तो हमें नदी को बांधने की ज़िद छोड़कर, नदी के साथ अनुकूलन (Adaptation) करना सीखना होगा।
बंगाल का सबक: DVC मॉडल
पश्चिम बंगाल में दामोदर नदी को भी कभी “बंगाल का शोक” कहा जाता था । लेकिन दामोदर घाटी निगम (DVC) ने इस नदी को सिर्फ़ बांधा नहीं, बल्कि इसे ‘ताक़त के इंजन’ में बदल दिया। DVC ने बाढ़ नियंत्रण को बिजली बनाने और सिंचाई से जोड़ा। इससे बाढ़ सुरक्षा के रखरखाव का ख़र्च हमेशा राजस्व से निकलता रहा, और सिस्टम टिकाऊ बना । बिहार को भी यही एकीकृत मॉडल अपनाना चाहिए ।
भविष्य के लिए स्पष्ट रास्ते
- बड़े स्टोरेज पर काम: भारत और नेपाल को मिलकर सप्त कोसी उच्च बांध जैसी बड़ी स्टोरेज परियोजनाओं पर काम करना चाहिए, ताकि बाढ़ का ज़्यादातर पानी पहाड़ों में ही नियंत्रित हो जाए और गाद जमा न हो ।
- एडवांस चेतावनी: बाढ़ पूर्वानुमान और चेतावनी प्रणाली (Early Warning System) को इतना मज़बूत करना होगा कि 2008 जैसी आपदा में लोगों को घर ख़ाली करने का पर्याप्त समय मिल सके ।
- पारदर्शिता और जवाबदेही: भ्रष्टाचार और ठेकेदार-नेता गठजोड़ को तोड़ने के लिए, बाढ़ रोकने वाली दीवारों की मरम्मत का ख़र्च और काम का सार्वजनिक ऑडिट होना चाहिए
- जनता का साथ: लोगों को गाद पर खेती (Sand Farming) और बाढ़ प्रतिरोधी घर बनाने के लिए प्रेरित करना, ताकि वे हर साल की तबाही से बच सकें ।
बिहार की जनता ने हर साल अपनी हिम्मत साबित की है। अब यह नेताओं और सरकारी संस्थाओं की ज़िम्मेदारी है कि वे झूठे वादों और ‘रिपेयर के खेल’ को छोड़कर, एक स्थायी, टिकाऊ समाधान की राह चुनें।














