बिहार की माटी में राजनीति सिर्फ कुर्सी और सत्ता का खेल नहीं है; ये अपनी जड़ों, अपने इतिहास और अपनी पहचान की एक बहुत गहरी लड़ाई भी है। हाल ही में बुधवार को हुई सवर्ण आयोग की तीसरी बैठक ने एक ऐसे मुद्दे को हवा दे दी है, जो दशकों से समाज के भीतर सुलग रहा था। सवाल सीधा सा लगता है—सरकारी कागजों में जाति का नाम ‘भूमिहार’ दर्ज हो या भूमिहार ब्राह्मण? लेकिन इस एक शब्द के पीछे जो सामाजिक और राजनीतिक गहराई है, उसने आयोग के सदस्यों को भी दो खेमों में बांट दिया है ।
जब हम अपनी पहचान की बात करते हैं, तो ये सिर्फ एक नाम नहीं होता, बल्कि समाज में हमारे स्थान और सम्मान का प्रतीक होता है। यही वजह है कि आज बिहार का एक बड़ा तबका अपनी इस मांग को लेकर अड़ा हुआ है।

सवर्ण आयोग की बैठक: पांच सदस्य दो गुटों में बंट गए
बुधवार को पटना में हुई सवर्ण आयोग की बैठक में काफी उम्मीदें थीं, लेकिन नतीजा सिफर रहा। आयोग के कुल पांच सदस्य हैं, और रिपोर्टों की मानें तो इनमें से चार सदस्य इस बात के हक में नहीं थे कि ‘भूमिहार’ को ‘भूमिहार ब्राह्मण’ के तौर पर अनिवार्य किया जाए ।
क्या है असली विवाद? ‘इतिहास’ बनाम ‘परंपरा’
ये लड़ाई कोई आज की नहीं है। इसके जड़ें बहुत पुरानी हैं। चलिए इसे थोड़ा करीब से समझते हैं:
1. इतिहास का हवाला (1931 की जनगणना)
जो लोग ‘भूमिहार ब्राह्मण’ लिखने के पक्ष में हैं, उनका सबसे बड़ा हथियार है 1931 की जनगणना। उस समय के रिकॉर्ड्स और पुराने जमीन के कागजातों (खतियान) में इसी शब्द का इस्तेमाल हुआ था । उनका तर्क है कि हालिया जातीय सर्वेक्षण में उन्हें सिर्फ ‘भूमिहार’ लिखकर उनकी ऐतिहासिक ब्राह्मण पहचान को कमतर करने की कोशिश की गई है ।
2. परंपरा और पेशा
दूसरी तरफ, जो लोग इस बदलाव के खिलाफ हैं या जिन्हें आपत्ति है, उनका कहना है कि ‘ब्राह्मण’ शब्द पारंपरिक रूप से ‘पुरोहिताई’ (पूजा-पाठ) से जुड़ा है। जबकि भूमिहार समुदाय सदियों से खेती-बाड़ी, जमींदारी और शासन से जुड़ा रहा है । इसके अलावा, एक तर्क संस्कारों को लेकर भी है। पारंपरिक ब्राह्मणों में जनेऊ संस्कार बचपन में होता है, जबकि भूमिहारों में अक्सर ये शादी के समय संपन्न किया जाता है ।
पहचान कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो रातों-रात बदल जाए। ये पीढ़ियों का संचय है। जो लोग ‘ब्राह्मण’ शब्द जोड़ना चाहते हैं, उनके लिए ये ‘अयाचक ब्राह्मण’ (जो दान न ले) होने का गौरव है । वहीं विरोधियों को लगता है कि ‘भूमिहार’ अपने आप में एक इतनी ताकतवर पहचान है कि उसे किसी और सहारे की जरूरत नहीं।
क्या ये सिर्फ नाम की लड़ाई है या राजनीति का खेल?
बिहार में कुछ भी ‘अराजनीतिक’ नहीं होता। राज्य की सत्ता में ‘भूमिहार’ प्रभाव फिर से बढ़ता दिख रहा है । राजनीतिक जानकारों का मानना है कि ‘भूमिहार ब्राह्मण’ नाम को आधिकारिक मान्यता मिलने से ये समुदाय सवर्णों के एक बड़े ब्लॉक (जैसे पारंपरिक ब्राह्मणों) के साथ और मजबूती से जुड़ सकता है ।
जब आप कागजों पर अपनी पहचान बदलते हैं, तो उसका असर भविष्य की नौकरियों, आरक्षण (जैसे EWS लाभ) और सामाजिक समीकरणों पर भी पड़ता है । अवधेश मिश्रा और अंजनी कुमार बेनीपुरी जैसे नेताओं ने इसी पहचान की रक्षा के लिए सरकार को आवेदन दिया था, जिस पर अब मंथन चल रहा है ।
फैसला अब नीतीश सरकार के हाथ में
सवर्ण आयोग की बैठकों का बेनतीजा रहना ये बताता है कि ये मुद्दा जितना भावनात्मक है, उतना ही पेचीदा भी। सरकार के लिए ये ‘इधर कुआं, उधर खाई’ वाली स्थिति है। अगर वो मांग मान लेती है, तो दूसरी जातियों से भी ऐसी ही मांगें उठ सकती हैं। और अगर नहीं मानती, तो एक प्रभावशाली वोट बैंक की नाराजगी का खतरा है ।
आखिरकार, पहचान दिल में होती है या कागजों में? ये बहस तो चलती रहेगी, लेकिन फिलहाल बिहार की सियासत में ‘भूमिहार’ और ‘ब्राह्मण’ शब्दों के बीच का ये मेल चर्चा का सबसे गर्म विषय बना हुआ है।
















