कभी गूगल मैप्स पर बिहार के सारण जिले के एक कस्बे, मढ़ौरा (Marhowra) को ढूंढने पर एक उदास कर देने वाला टैग मिलता था— “Ruins of Marhowra” यानी मढ़ौरा के खंडहर। यहाँ की चीनी मिलें खामोश थीं और उम्मीदें दम तोड़ रही थीं। लेकिन वक्त का पहिया घूमा, और आज उसी मढ़ौरा की जमीन से मशीनों की ऐसी दहाड़ सुनाई दे रही है जिसने दुनिया के सबसे बड़े माइनिंग प्रोजेक्ट्स की धड़कनें तेज कर दी हैं।
वित्तीय वर्ष 2025-26 भारतीय इंजीनियरिंग के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हो रहा है। मढ़ौरा स्थित Wabtec की फैक्ट्री से निकले 150 अत्याधुनिक डीजल लोकोमोटिव्स (रेल इंजन) अब पश्चिम अफ्रीका के गिनी (Guinea) में दौड़ रहे हैं। ₹3,000 करोड़ ($360 मिलियन) का यह सौदा सिर्फ एक व्यापारिक लेन-देन नहीं है; यह बिहार के उस हुनर का प्रमाण है जो अब दुनिया के सबसे कठिन रास्तों पर भी ट्रेन दौड़ाने का माद्दा रखता है।

इंजीनियरिंग का ‘बाहुबली’: ES43ACmi
गिनी के सिमांडू (Simandou) पहाड़ दुनिया के सबसे बड़े लौह अयस्क (Iron Ore) के खजाने हैं, लेकिन वहाँ का माहौल किसी भी मशीन के लिए नर्क से कम नहीं—लाल धूल, 50 डिग्री वाली भीषण गर्मी और जानलेवा ढलानें। यहाँ साधारण इंजन हफ्ते भर में दम तोड़ देते हैं।
मढ़ौरा में बनाए गए Evolution Series ES43ACmi इंजन इन चुनौतियों का जवाब हैं:
- बेजोड़ ताकत: इसमें लगा 4,500 हॉर्सपावर का GEVO-12 इंजन कम ईंधन पीकर भी पहाड़ हिलाने की ताकत रखता है।
- गर्मी से जंग: गिनी की गर्मी से निपटने के लिए इसमें खास कूलिंग सिस्टम लगाया गया है, जो इंजन को ‘derate’ (गर्म होकर बंद) होने से बचाता है।
- धूल का कवच: लौह अयस्क की बारीक धूल इंजन को खराब न कर दे, इसके लिए इसमें विशेष ‘स्पिन फिल्टर’ और ‘बैग फिल्टर’ लगे हैं जो धूल को इंजन के दिल तक पहुँचने से पहले ही बाहर फेंक देते हैं।
इंसानियत और तकनीक का संगम: ‘माइक्रोवेव’ वाली शर्त
सबसे दिल छू लेने वाली बात यह है कि इन इंजनों को बनाते समय ड्राइवरों (Loco Pilots) की सहूलियत को सबसे ऊपर रखा गया। गिनी सरकार की सख्त मांग थी कि बिहार में बने इन इंजनों के केबिन में एयर कंडीशनिंग, फ्रिज, माइक्रोवेव और टॉयलेट जैसी सुविधाएं होनी चाहिए। यह दिखाता है कि ‘मेक इन इंडिया’ का मतलब सिर्फ लोहे की मशीन बनाना नहीं, बल्कि उसे चलाने वाले इंसान की कद्र करना भी है।
‘लोकोमोटिव रिफ्ट’: जब दुनिया ने चीन के बजाय भारत को चुना
इस प्रोजेक्ट की सबसे रोमांचक बात वह भू-राजनीतिक (Geopolitical) नाटक है जिसे दुनिया “Locomotive Rift” के नाम से जान रही है। सिमांडू प्रोजेक्ट में चीन की कंपनियों का दबदबा है। उन्होंने खदान से पोर्ट तक ट्रेन चलाने के लिए चीन की सरकारी कंपनी CRRC के सस्ते इंजन मँगवा लिए थे।
लेकिन गिनी की सरकार ने एक साहसिक फैसला लिया। उन्होंने चीनी इंजनों को पोर्ट पर ही रोक दिया और साफ कह दिया कि हमें ‘पश्चिमी मानकों’ वाले इंजन चाहिए—वही इंजन जो भारत के मढ़ौरा में बन रहे हैं। एक चीनी प्रोजेक्ट के लिए, चीनी इंजनों को नकार कर बिहार में बने इंजनों को चुनना, भारत की मैन्युफैक्चरिंग क्षमता पर दुनिया के भरोसे की सबसे बड़ी मुहर है। यह भारत के लिए एक कूटनीतिक जीत थी।
ताज़ा अपडेट: जब बिहार के इंजनों ने जहाज को रवाना किया
नवंबर 2025 के अंत में एक बड़ा संकट खड़ा हो गया था। सिमांडू से लौह अयस्क ले जाने वाला पहला विशालकाय जहाज, ‘विनिंग यूथ’ (Winning Youth), पोर्ट ऑफ मोरेबाया (Morebaya) पर हफ्तों तक खड़ा रहा। कारण? खदान से पोर्ट तक अयस्क लाने के लिए पर्याप्त इंजन नहीं थे।
लेकिन मढ़ौरा ने निराश नहीं किया। ताज़ा रिपोर्ट्स (दिसंबर 2025) के अनुसार, भारतीय इंजनों की आपूर्ति तेज होने के बाद, 2 दिसंबर 2025 को ‘विनिंग यूथ’ आखिरकार गिनी से चीन के लिए रवाना हो गया। अब यह जहाज जनवरी 2026 के मध्य तक चीन पहुँचेगा। इस जहाज का चलना सिर्फ एक खबर नहीं, बल्कि इस बात का सबूत है कि बिहार के कारखानों में बनी मशीनें वैश्विक सप्लाई चेन की रुकावटों को दूर कर रही हैं।
लॉजिस्टिक्स का कमाल: पटरियों का बदलाव
इस सफर में एक बड़ी तकनीकी चुनौती भी थी। भारत में ब्रॉड गेज (चौड़ी पटरियां) हैं, जबकि गिनी में स्टैंडर्ड गेज (मानक पटरियां) इस्तेमाल होती हैं। मढ़ौरा में बना इंजन भारत की पटरियों पर चलकर पोर्ट तक कैसे जाए?
इसके लिए एक नायाब इंजीनियरिंग समाधान निकाला गया:
- मढ़ौरा से मुंद्रा: इंजनों को अस्थाई तौर पर चौड़े पहियों (Broad Gauge Bogies) पर रखकर 1,500 किमी दूर गुजरात के मुंद्रा पोर्ट तक लाया गया।
- मुंद्रा में कायाकल्प: यहाँ बड़े क्रेनों की मदद से 130 टन के इंजन को हवा में उठाया गया, उसके नीचे से भारतीय पहिये हटाकर गिनी के मानक वाले पहिये (Standard Gauge Bogies) लगाए गए।
- समुद्र का सफर: फिर इन्हें विशाल RoRo जहाजों में लादकर अफ्रीका भेजा गया।
उम्मीद की नई पटरी
यह कहानी सिर्फ लोकोमोटिव्स के निर्यात की नहीं है। यह कहानी मढ़ौरा के उन हजारों कारीगरों की है, जिनमें से 25% महिलाएं हैं, जिन्होंने अपनी मेहनत से अपने कस्बे के माथे से “खंडहर” का दाग हमेशा के लिए मिटा दिया।
आज जब सिमांडू की पहाड़ियों में भारतीय इंजन की सीटी गूंजती है, तो वह केवल एक आवाज नहीं होती; वह भारत के ‘ग्लोबल साउथ’ में बढ़ते कद और बिहार के औद्योगिक पुनर्जन्म का ऐलान होती है। जिस मिट्टी को कभी पिछड़ा माना जाता था, आज वही मिट्टी भविष्य के ‘ग्रीन स्टील’ के लिए रास्ता बना रही है।

















