
कहानी की शुरुआत: मिथिला की गौरवशाली धरती पर एक नई पहचान
दरभंगा, बिहार का वह नाम है जो सिर्फ एक शहर नहीं, बल्कि सदियों पुराने मिथिला प्रदेश की पहचान है। यह भूमि ज्ञान, साहित्य और सभ्यता का केंद्र रही है, जहाँ महान विद्वानों ने जन्म लिया। 16वीं सदी में, मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में, इस क्षेत्र में खंडवाला वंश की नींव पड़ी । महामहोपाध्याय महेश ठाकुर को इस राज का संस्थापक माना जाता है, जिन्हें अकबर से समस्त मिथिला का राज्य एक शाही जागीर के तौर पर प्राप्त हुआ था । हालाँकि यह एक ज़मींदारी थी, लेकिन इसका प्रभुत्व किसी शक्तिशाली रियासत से कम नहीं था, जिसे लोग ‘तिरहुत सरकार’ के नाम से जानते थे।
दरभंगा राज का भौगोलिक फैलाव इतना बड़ा था कि यह आधुनिक बिहार के एक बड़े हिस्से को कवर करता था। 1901 के आँकड़ों के अनुसार, इस राज का क्षेत्रफल लगभग 8,380 वर्ग किलोमीटर (3,240 वर्ग मील) था और इसकी जनसंख्या 29 लाख से अधिक दर्ज की गई थी । यह विशालता ही महाराजाओं की राजनीतिक और आर्थिक शक्ति का आधार थी।
भारत के तीसरे सबसे अमीर महाराजा
दरभंगा के महाराजाओं को एक समय भारत के तीसरे सबसे अमीर व्यक्ति के रूप में जाना जाता था । उनकी यह दौलत सिर्फ ज़मींदारी से नहीं आई थी, बल्कि दूरदर्शी औद्योगिक निवेश से पैदा हुई थी। उन्होंने कृषि राजस्व को आधुनिक उद्योगों में लगाया, जिससे एक विशाल औद्योगिक साम्राज्य खड़ा हुआ। उनके औद्योगिक संस्थानों में एशिया की सबसे बड़ी अशोक पेपर मिल और लोहट की चीनी मिलें प्रमुख थीं । इसके अलावा, उनकी कंपनी थैकर्स एंड स्प्रंक पूर्वी भारत की सबसे बड़ी स्टेशनरी और प्रिंटिंग कंपनी थी, जिसके पास भारतीय रेलवे की समय सारिणी छापने का एकमात्र अधिकार था ।
शाही रेल सेवा और अकाल राहत के कार्य
महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने अपने वैभव के साथ-साथ जन-कल्याण को भी प्राथमिकता दी। 1874 में जब उत्तर बिहार में भीषण अकाल पड़ा, तो उन्होंने राहत कार्यों को गति देने के लिए अपनी कंपनी के माध्यम से बरौनी के बाजिदपुर से लेकर दरभंगा तक एक रेल लाइन का निर्माण कराया, जिसका परिचालन 1875 में शुरू हुआ । उनकी शानो-शौकत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके पास ‘पैलेस ऑन व्हील’ की तरह की अपनी निजी शाही सैलून ट्रेन थी, जिसमें चांदी से मढ़ी सीटें और पलंग मौजूद थे । इस सैलून से महात्मा गांधी ने 1922, 1929 और 1934 सहित पाँच बार सफर कर दरभंगा की यात्रा की थी, और डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे स्वतंत्रता सेनानी भी इससे यात्रा करते थे ।
विलासिता और कला का दुर्लभ संग्रह
दरभंगा राज की शाही जीवनशैली की चर्चा पूरे देश में थी। कहा जाता था कि रॉल्स-रॉयस के अलावा दूसरी गाड़ी खरीदना उनकी शान के ख़िलाफ़ था । दरभंगा संग्रहालय में आज भी उनकी समृद्ध संस्कृति के प्रमाण मौजूद हैं । यहाँ महाराजाओं के दैनिक उपयोग की वस्तुएं, सोफे और महारानी की पालकी जैसी दुर्लभ वस्तुएँ संग्रहित हैं, जो ख़ास तौर पर हाथी दांत से बनाई गई थीं ।
महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह: समाज सुधार और राष्ट्र निर्माण
महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह को ‘तिरहुत सरकार’ के नाम से भी जाना जाता था । उन्होंने न केवल अपनी रियासत, बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण कार्य किए। वे 1885 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) के संस्थापकों में से एक थे । उन्होंने औपनिवेशिक विरोधी आंदोलन को शुरुआती दौर में ही समर्थन देकर देश के भविष्य को आकार देने में अपना योगदान दिया ।
‘एज ऑफ कंसेंट बिल’ का समर्थन (1890)
महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह का सबसे बड़ा प्रगतिशील योगदान ‘द एज ऑफ कंसेंट बिल’ (सहमति की आयु विधेयक) का समर्थन था। 1890 में, जब यह कानून बाल विवाह की प्रथा पर रोक लगाने के लिए लाया गया, तब बालगंगाधर तिलक जैसे कई राष्ट्रवादी नेता इसे ब्रिटिश हस्तक्षेप मानकर विरोध कर रहे थे । लेकिन महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने बालिकाओं की सुरक्षा और सामाजिक न्याय को सर्वोपरि रखा । उन्होंने दुर्गाचरण लॉ और रास बिहारी बोस जैसे नेताओं के साथ इस विधेयक के पक्ष में निर्णायक मतदान किया । यह कदम बताता है कि राज की असली शक्ति उनकी प्रगतिशील सोच में थी, जिसने एक सामाजिक क्रांति को जन्म दिया।
महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह की परोपकारिता
महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह की परोपकारिता अद्वितीय थी और यह किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं थी। जब पंडित मदन मोहन मालवीय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) की स्थापना के लिए धन जुटा रहे थे, तो महाराजा ने अकेले 50 लाख रुपये का विशाल दान दिया था । इसके अलावा, राजघराने ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) को भी बड़ी रकम दान में दी, जिससे वे इस विश्वविद्यालय के लिए सबसे बड़े गैर-मुस्लिम दानदाता बने । स्थानीय कल्याण के कार्यों में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण था; उन्होंने बेसहारा लोगों के लिए घर बनवाए और मुजफ्फरपुर जजशिप के लिए भी 52 बीघा भूमि दान की थी ।
महाराजा कामेश्वर सिंह: विरासत के अंतिम वाहक
महाराजाधिराज डॉ. सर कामेश्वर सिंह (1887-1962) को व्यापक रूप से ‘कलियुग के दानवीर’ कहा जाता था । उन्होंने अपनी भौतिक शक्ति को ज्ञान की शक्ति में बदल दिया । शिक्षा के प्रति उनका समर्पण अद्वितीय था। उन्होंने अपना भव्य आनंदबाग पैलेस संस्कृत शिक्षा को समर्पित कर दिया, जहाँ 26 जनवरी 1961 को कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना हुई । इसके अलावा, पटना में स्थित उनका महल, दरभंगा हाउस (पटना), भी उन्होंने पटना विश्वविद्यालय को दान कर दिया । आज भी दरभंगा में महाराजा कामेश्वर सिंह अस्पताल और पुस्तकालय उनकी शैक्षिक और सामाजिक विरासत को ज़िंदा रखे हुए हैं ।
वास्तुकला, कुल देवता और आस्था का केंद्र
राज की वास्तुकला इंडो-सेरासेनिक शैली (भारतीय, इस्लामी और यूरोपीय शैली का मिश्रण) का प्रमाण है । महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह के लिए पटना का दरभंगा हाउस और आनंदबाग पैलेस ब्रिटिश वास्तुविद मेजर चार्ल्स मैं ने डिज़ाइन किए थे । राजधानी दिल्ली में आज भी लुटियंस जोन में ‘दरभंगा लेन’ मौजूद है, जो महाराजा के राष्ट्रीय सम्मान का प्रमाण है । धार्मिक रूप से, रियासत के कुल देवता का निवास स्थान गोसाईं भवन सभी मांगलिक कार्यों का केंद्र था । इसके अलावा, श्यामा काली मंदिर (तारा मंदिर) दरभंगा का एक विशिष्ट स्थल है, जिसे राज परिवार के सदस्यों की चिता पर बना हुआ है ।
राज का पतन: कानूनी संघर्ष और विश्वासघात
स्वतंत्रता के बाद, भारत सरकार ने ज़मींदारी उन्मूलन कानून (1950) पारित किया। दरभंगा राज ने, जो देश की सबसे बड़ी ज़मींदारी में से एक था, इस कानून को पटना उच्च न्यायालय में चुनौती दी । इस कानूनी चुनौती का भारतीय इतिहास पर गहरा असर पड़ा। इस ‘दरभंगा महाराज केस’ के कारण, सरकार को तत्काल भारतीय संविधान में पहला संशोधन करना पड़ा, ताकि भूमि सुधार कानूनों को न्यायिक समीक्षा से सुरक्षा दी जा सके ।
सरकारी अधिग्रहण और ट्रस्टियों का विश्वासघात
महाराजा कामेश्वर सिंह की कोई संतान नहीं थी, इसलिए 1961 में उनके निधन के बाद उन्होंने अपनी विशाल संपत्ति एक धर्मार्थ न्यास (चैरिटेबल ट्रस्ट) को सौंप दी । राज के पतन का सबसे दुखद दौर आपातकाल (Emergency) के दौरान आया, जब अगस्त 1975 में, बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के निर्देश पर, दरभंगा राज का मुख्य कार्यालय बलपूर्वक सरकारी कब्ज़े में ले लिया गया । इस अधिग्रहण में 300 बीघा जमीन के लिए मात्र ₹70,000 का नाम मात्र मुआवजा दिया गया ।
ट्रस्ट पर भरोसा करने के बावजूद, ट्रस्टियों ने महाराजा की संपत्ति का दुरुपयोग शुरू कर दिया । उनकी कोठियां इलाहाबाद, कोलकाता और सौराष्ट्र जैसे स्थानों पर ओने-पौने दामों पर बेच दी गईं । यहाँ तक कि एशिया की सबसे बड़ी अशोक पेपर मिल और लोहट की चीनी मिलें भी अधिग्रहित होने के बाद एक दशक के भीतर बंद हो गईं । हाल ही में, प्रबंधकों पर महारानी कामसुंदरी देवी के बुढ़ापे का फायदा उठाकर बैंक लॉकरों में रखे करोड़ों रुपये के हीरे, जवाहरात और एंटीक आइटम्स अवैध तरीके से बेचने के आरोप भी लगे हैं, जिसके बाद पुलिस ने कार्रवाई की और माल बरामद किया ।
विरासत का खंडहर में बदलना
जिस शानो शौकत के लिए दरभंगा रियासत मशहूर थी, वक्त की मार से उसकी निशानियाँ खंडहर में बदल गई हैं । मधुबनी का भव्य किला और रियासत के कुल देवता का निवास स्थान गोसाईं भवन भी आज जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं । राज परिवार के वारिस अब अपनी धरोहरों को बचाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं ।
दरभंगा राज का महत्व
दरभंगा राज की कहानी एक शक्तिशाली ज़मींदारी के उत्थान और उसके अपरिहार्य पतन का प्रतीक है। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने समाज सुधार और राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जबकि महाराजा कामेश्वर सिंह ने अपनी संपत्ति को कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय जैसे ज्ञान के मंदिरों में बदलकर अपनी विरासत को अमर कर दिया । आज, महाराजाओं द्वारा दान की गई इमारतों में ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय जैसी शैक्षणिक संस्थाएं चल रही हैं । भले ही राज का भौतिक साम्राज्य ध्वस्त हो गया हो, लेकिन उनकी ज्ञान और दान की विरासत भारत के शैक्षिक, सामाजिक और संवैधानिक इतिहास में आज भी मज़बूती से ज़िंदा है।

















