बिहार के Sonpur में हर साल लगने वाला सोनपुर मेला सिर्फ एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला ही नहीं है, बल्कि यह दुनिया के सबसे प्राचीन मेलों में से एक है। यह मेला गंगा और गंडक नदियों के संगम पर स्थित हरिहर क्षेत्र में लगता है, जो अपने धार्मिक, भौगोलिक और व्यापारिक महत्व के लिए जाना जाता है।

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हरिहर क्षेत्र का धार्मिक महत्व
Sonpur के इस क्षेत्र को हरिहर क्षेत्र कहा जाता है क्योंकि यहां हरि यानी भगवान विष्णु और हर यानी महादेव शिव, दोनों की एक साथ पूजा होती है। हरिहरनाथ मंदिर विश्व का एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां एक ही शिवलिंग में आधे हिस्से में शिव और आधे में विष्णु की आकृति विराजमान है। मान्यता है कि इस मंदिर की स्थापना स्वयं ब्रह्मा जी ने शैव और वैष्णव संप्रदाय को एक-दूसरे के करीब लाने के लिए की थी।
गज-ग्राह युद्ध की पौराणिक कथा
Sonpur मेले से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण कथा गज और ग्राह के युद्ध की है। पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के दो भक्त महान ऋषियों के शाप से हाथी और मगरमच्छ के रूप में धरती पर जन्मे थे। एक दिन जब हाथी कोनहारा घाट पर गंडक नदी में स्नान कर रहा था, तो एक शक्तिशाली मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया। दोनों के बीच कई दिनों तक भीषण युद्ध चलता रहा, लेकिन जब हाथी कमजोर पड़ने लगा तो उसने भगवान विष्णु को पुकारा। कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु प्रकट हुए और अपने सुदर्शन चक्र से मगरमच्छ का वध कर हाथी को मुक्ति दिलाई। इसी घटना के कारण इस स्थान को गजेंद्र मोक्ष स्थल के रूप में भी जाना जाता है और यहां पशुओं की खरीद-बिक्री को शुभ माना जाता है।
मेला क्यों लगता है इसी जगह पर
सोनपुर मेला का यहां लगने के पीछे तीन प्रमुख कारण हैं:
धार्मिक कारण: हर साल कार्तिक पूर्णिमा पर लाखों श्रद्धालु गंगा और गंडक के संगम पर पवित्र स्नान करने आते हैं। मान्यता है कि इस दिन यहां स्नान करने से सौ गोदान का फल मिलता है। श्रद्धालु हरिहरनाथ मंदिर में गंगाजल चढ़ाते हैं और इसी के साथ मेले की शुरुआत होती है।
भौगोलिक कारण: गंगा और गंडक के संगम पर स्थित होने के कारण यह स्थान प्राचीन काल से ही एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र रहा है। नदियों के किनारे होने से दूर-दूर से व्यापारियों का आना-जाना आसान था।
ऐतिहासिक महत्व: यह मेला उत्तर वैदिक काल से लगता आ रहा है। कहा जाता है कि चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने अपनी सेना के लिए हाथी और घोड़े इसी मेले से खरीदे थे। मुगल बादशाह औरंगजेब के समय में मेले का स्वरूप और भी विस्तृत हुआ और तब से यह निरंतर विकसित होता रहा है।
Sonpur मेला मुख्य रूप से पशु-पक्षियों की खरीद-बिक्री के लिए प्रसिद्ध है। यहां हाथी, घोड़े, ऊंट, गाय, बैल, भैंस, कुत्ते, बिल्ली और विभिन्न प्रकार के पक्षियों का व्यापार होता है। पहले यह मेला हाथियों की खरीद-बिक्री के लिए सबसे प्रसिद्ध था और दूर-दूर से राजा-महाराजा यहां आते थे। हालांकि 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम लागू होने के बाद हाथियों की खुली बिक्री पर रोक लग गई, लेकिन अब भी सजे-धजे हाथी मेले का मुख्य आकर्षण बने रहते हैं।
केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक से व्यापारी यहां घोड़े, ऊंट और अन्य पशुओं को खरीदने आते हैं। मध्य एशिया जैसी दूर-दराज की जगहों से भी व्यापारी इस मेले में हिस्सा लेने आते थे।
सांस्कृतिक कार्यक्रम और मनोरंजन
Sonpur मेला केवल पशु व्यापार तक सीमित नहीं है। यहां विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भव्य आयोजन होता है। लोक नृत्य, संगीत, लघु नाटक, विभिन्न वाद्य यंत्रों का वादन और पारंपरिक प्रस्तुतियां मेले की शोभा बढ़ाती हैं। जादूगर, धार्मिक गुरु, तांत्रिक, सर्कस के कलाकार, नाच-गाने वाले दल मेले में मनोरंजन का अद्भुत संगम प्रस्तुत करते हैं।
शाम को गंडक नदी के घाट पर होने वाली गंगा महाआरती का नजारा बेहद मनमोहक होता है। हजारों दीपों से सजा यह नजारा श्रद्धालुओं और पर्यटकों को आध्यात्मिक शांति देता है।
मेले में अन्य आकर्षण
मेले में हस्तशिल्प, वस्त्र, हथियार, फर्नीचर, खिलौने, बर्तन और कृषि उपकरणों की दुकानें भी लगती हैं। यहां की लिट्टी-चोखा, समोसा और मिठाइयां खाने का अलग ही आनंद है। कहावत है कि सोनपुर मेले में सुई से लेकर हाथी तक सब कुछ मिलता है।
झूले, मनोरंजन के खेल और अन्य मेले की रौनक भी यहां देखने को मिलती है।
Sonpur मेला 2025 की तारीख
2025 में यह मेला 9 नवंबर से 10 दिसंबर तक लगेगा। पहले इसे 3 नवंबर से शुरू करने की योजना थी, लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव के कारण तारीख में बदलाव किया गया है। कार्तिक पूर्णिमा का पवित्र स्नान 5 नवंबर 2025 को होगा। मेला आमतौर पर 15 दिन से लेकर एक महीने तक चलता है।
श्रद्धा और व्यापार का अनोखा संगम
सोनपुर मेला धर्म, संस्कृति, व्यापार और मनोरंजन का अद्भुत मिश्रण है। यह मेला बिहार की ग्रामीण संस्कृति, परंपरा और जीवंत विरासत को दर्शाता है। हर साल लाखों देशी-विदेशी पर्यटक इस अनोखे मेले का हिस्सा बनने आते हैं और यहां की धार्मिक आस्था, रंगारंग कार्यक्रम और ग्रामीण जीवन की झलक को अपने दिल में संजो कर ले जाते हैं।
यह मेला सदियों से बिहार की पहचान बना हुआ है और आज भी अपने पुराने गौरव के साथ फल-फूल रहा है। गंगा-गंडक के पावन तट पर लगने वाला यह मेला हमारी सांस्कृतिक धरोहर का जीवंत उदाहरण है।


















