न्यायाधीश को छुट्टी की जरूरत हो सकती है, लेकिन न्याय की व्यवस्था कभी सो नहीं सकती। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय का 2026 कैलेंडर आया है और उसमें जो बातें सामने आई हैं, वो हमारे पूरे न्याय तंत्र की असली खस्ता हालत बयां करती हैं।

365 दिनों में मात्र 219 दिन काम
365 दिनों का एक साल में सर्वोच्च न्यायालय को मात्र 219 दिन पूरी तरह से काम करने को मिलते हैं। यानी साल का केवल 60% समय ही कोर्ट पूरी ताकत से चलता है। बाकी के 145 दिन गर्मी की छुट्टी (1 जून से 13 जुलाई), होली, दशहरा, दिवाली, क्रिसमस और अन्य छुट्टियों में चले जाते हैं। Calendar
हाँ, त्योहारों का सम्मान जरूरी है। न्यायाधीशों को आराम भी चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि जो करोड़ों लोग अदालत के फैसले के लिए बैठे हैं, उनके लिए कौन सी छुट्टी है? उनका न्याय कब होगा?
5.3 करोड़ मामले : एक अदृश्य संकट
भारत के सभी कोर्टों में 5.3 करोड़ 40 लाख मामले लंबित हैं। यह सिर्फ एक संख्या नहीं है। ये 5.3 करोड़ परिवार हैं, 5.3 करोड़ कहानियाँ हैं। कोई जमीन के लिए लड़ाई लड़ रहा है, कोई तलाक का इंतजार कर रहा है, कोई आपराधिक सजा का निर्णय पाना चाहता है।
इनमें से करीब 4.7 करोड़ मामले जिला कोर्टों में अटके हुए हैं—वो कोर्ट जहाँ आम आदमी पहली बार न्याय के दरवाजे पर खटखटाता है। और सबसे बुरी बात यह है कि 2020 से 2024 के बीच, ये पेंडिंग मामले 30% बढ़ गए हैं। समस्या सुलझ नहीं रही, बिगड़ ही रही है।
बिहार में हालात और भी गंभीर हैं। यहाँ 71% मामले तीन साल से ज्यादा समय से लंबित हैं—देश में सबसे अधिक। कुछ मामले तो 1952 से फंसे हुए हैं। 73 साल! किसी बुजुर्ग न्यायाधीश को शायद यह केस अपने पहले दिन मिला हो और आज तक सुलझा नहीं।
33% हाई कोर्ट जज खाली, 21% जिला कोर्ट जज खाली
यहाँ आता है एक बड़ा विडंबना। सरकार के पास कागजों पर तो न्यायाधीशों के पद हैं, पर असली में खाली कुर्सियाँ। 25 हाई कोर्टों में 1,114 न्यायाधीशों के पद होने चाहिए, लेकिन 330 पद खाली हैं। यानी 33% रिक्ति दर।
जिला कोर्टों में भी 25,870 में से 4,789 पद खाली हैं (लगभग 21% रिक्ति)। इलाहाबाद हाई कोर्ट में 47.5% पद खाली हैं। केवल सिक्किम और मेघालय के हाई कोर्ट पूरी ताकत से काम कर रहे हैं।
हर 18.7 लाख लोगों पर एक न्यायाधीश
भारत में 140 करोड़ लोग हैं। और न्यायाधीश? हर 18.7 लाख लोगों पर एक। यानी एक न्यायाधीश को 69,000 मामलों का प्रबंधन करना पड़ता है। कानून आयोग कहता है कि होना चाहिए हर 20 लाख लोगों पर एक न्यायाधीश। पर हमारे पास तो यह भी नहीं है।
मामले क्यों अटके रहते हैं?
केवल कैलेंडर की कमी ही नहीं है। 62 लाख मामले इसलिए अटके हैं क्योंकि वकील सुनवाई के दिन नहीं आते। 27 लाख में गवाह नहीं आ रहे। 35 लाख में आरोपी ही फरार हैं। 23 लाख मामलों पर विभिन्न कोर्टों की ओर से स्टे (रोक) लगी है। और 13 हाई कोर्टों में 20 से 50% तक प्रशासनिक स्टाफ की रिक्तियाँ हैं।
जेलों में 76% लोग अभी ट्रायल का इंतजार कर रहे हैं
भारत की जेलों में 5.7 लाख लोग बैठे हैं। इनमें से 76% लोगों का ट्रायल अभी शुरू ही नहीं हुआ। ये लोग जेल में सजा नहीं भुगत रहे। ये अपने केस के फैसले का इंतजार कर रहे हैं। कुछ को 1-3 साल बिना फैसले के जेल में रहना पड़ा है।
क्या समाधान है?
नियुक्तियों को तेजी से करना पड़ेगा। न्यायाधीशों की संख्या बढ़ानी पड़ेगी। ई-कोर्ट सिस्टम को तेजी से लागू करना पड़ेगा। प्रशासनिक स्टाफ बढ़ाना पड़ेगा। और वकीलों को अनावश्यक मुलतवी पर रोक लगानी पड़ेगी।
लेकिन जब तक ये नहीं होता, तब तक 5.3 करोड़ लोग इंतजार करते रहेंगे। कुछ 10 साल, कुछ 20 साल। और न्याय? न्याय तो कभी आ ही नहीं पाएगा।
यह सिर्फ एक संकट नहीं है। यह लोकतंत्र के साथ विश्वासघात है।















