
बिहार के दारभंगा जिले के बिस्पी गाँव में चौदहवीं सदी में एक ऐसा कवि पैदा हुआ था जिसने प्रेम और भक्ति को शब्दों में इस तरह पिरोया कि पूरे पूर्वी भारत की साहित्यिक परंपरा बदल गई। विद्यापति का जीवन एक साधारण दरबारी से शुरू हुआ था, पर उन्होंने जो कुछ रचा वह असाधारण था। राजा शिवसिंह ने उन्हें “नया जयदेव” की उपाधि दी थी – यानी जयदेव जैसा महान कवि। और विद्यापति ने उस विश्वास को सार्थक कर दिया। उनके लगभग पाँच सौ प्रेम गीत (पद) सिर्फ दरबार की शोभा नहीं रहे, बल्कि आम जनता के दिलों में उतर गए। औरतें इन्हें विवाह में गाती थीं, भक्त इन्हें भगवान के ध्यान में गाते थे।
मातृभाषा को मिला सम्मान
उस समय अगर कोई काव्य रचना करना चाहता था तो संस्कृत का रास्ता अपनाना पड़ता था। विद्यापति ने एक बहुत ही साहसिक निर्णय लिया – उन्होंने मैथिली में कविता लिखना शुरू किया। उन्होंने कहा – देसिल बयना सब जन मिट्ठा, यानी अपनी भाषा में बात करना सभी को मीठी लगती है। यह बात इतनी शक्तिशाली थी कि विद्यापति के बाद पूरे पूर्वी भारत में मैथिली, बंगाली और अन्य स्थानीय भाषाओं में काव्य रचना का एक बड़ा आंदोलन शुरू हो गया। बिहार से नेपाल, बंगाल, ओडिशा – हर जगह कवि विद्यापति के अंदाज़ को अपनाने लगे। सैकड़ों साल बाद जब एक महान साहित्यकार दरबार में बैठे, तो उन्होंने भी विद्यापति से प्रेरणा लेकर गीत लिखे।
विद्यापति: सिर्फ प्रेम के कवि नहीं, एक विचारक
विद्यापति का साहित्य सिर्फ प्रेम गीतों तक सीमित नहीं रहा। जब राजनीतिक परिस्थितियाँ बदलीं, तो उनके काव्य में भी एक गहरा परिवर्तन आया। वह भक्ति के गीतों की ओर मुड़ गए। शिव को, दुर्गा को, गंगा को उन्होंने ऐसी मार्मिकता से चित्रित किया कि भक्ति का एक नया आयाम जोड़ दिया। उन्होंने न सिर्फ गंगा वाक्यावली] लिखी, बल्कि पुरुष परीक्षा] और लिखनावली] जैसे ग्रंथ भी रचे जहाँ उन्होंने सच्चाई, नैतिकता और शासन के सिद्धांतों को परिभाषित किया। 14वीं सदी में कहना कि सच्चाई ऊँची जाति में नहीं, बल्कि विनम्रता और ज्ञान में है – यह कितना साहसिक था! विद्यापति एक विचारक थे, एक दार्शनिक थे, जिन्होंने अपने समय की सीमाओं को चुनौती दी।
विद्यापति की धरती मिथिला है, और मिथिला का यह सपूत हजार साल बाद भी जीवंत रहेगा।

















