वह क्या शानदार पल होता होगा जब हमारी अपनी कहानियाँ, हमारी बोली, हमारे समाज और हमारी माटी के रंग, बड़े परदे पर उतरते हैं! यह देखना महज़ मनोरंजन नहीं होता; यह दिल से महसूस करना होता है । मैथिली सिनेमा का यह नया दौर (New Wave) सिर्फ़ फ़िल्में बनाना नहीं है; यह अपनी भाषा, अपनी पहचान और सांस्कृतिक विरासत को फिर से ज़िंदा करने की सबकी एक साथ की गई कोशिश है।

मैथिली सिनेमा की शुरुआत 1965 में बनी फिल्म कन्यादान से हुई थी । मगर आज जो नया जोश आया है, उसकी असली पहचान 2016 के बाद बनी। इसका सबसे बड़ा नाम है फिल्म मिथिला मखान । यह 63वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में ‘सर्वश्रेष्ठ मैथिली फिल्म’ चुनी गई । सोचिए, यह बिहार और झारखंड की पहली मैथिली फिल्म थी जिसने नेशनल अवॉर्ड जीता । इस फिल्म ने साबित किया कि मैथिली कहानियों में दुनिया भर में पहुँचने की ताक़त है। इसे कनाडा जैसे इंटरनेशनल मंचों पर दिखाया गया । यह नई लहर अपनी सच्चाई और ताक़तवर कहानियों के साथ मिथिला की असलियत को सामने लाने का वादा लेकर आई है ।
पर्दे पर उतरता यथार्थ: कहानियों की गहरी पड़ताल
आज की मैथिली फ़िल्में अब पुरानी काल्पनिक या सिर्फ़ नाच-गाने वाली फ़िल्मों से दूर हट गई हैं। अब ये फ़िल्में आज की सामाजिक-आर्थिक चिंताओं पर खुलकर बात करती हैं। यह बदलाव ज़रूरी है क्योंकि सिनेमा अब सच्चाई का आईना बनना चाहता है।
‘गामक घर’: पलायन और पुरानी यादें

निर्देशक अचल मिश्रा की फिल्म गामक घर इस नई सच्चाई का एक बेहतरीन उदाहरण है। यह एक धीमी, गहरी और भावुक फिल्म है, जो एक जगह से दूसरी जगह जाने (पलायन) और इसके कारण होने वाले टूटन को दिखाती है । फिल्म एक पुराने पुश्तैनी घर के बारे में है, जो अकेला होता जाता है, क्योंकि घर के पुरुष बेहतर रोज़गार के लिए शहर चले जाते हैं । यह घर केवल ईंट-पत्थर नहीं, बल्कि मिथिला की आत्मा का रूपक बन जाता है। फिल्म हमें सोचने पर मजबूर करती है कि तरक्की की दौड़ में हम अपनी जड़ों के साथ क्या खो रहे हैं ।
‘जैक्सन हॉल्ट’: युवाओं की बेचैनी और बाज़ार की सख़्ती

जैक्सन हॉल्ट बताती है कि मैथिली सिनेमा अब युवाओं की समस्याओं को उठा रहा है । समीक्षकों ने इसकी स्क्रिप्ट को शानदार माना । यह फिल्म बेरोज़गारी और लोकल राजनीति जैसे आज के मुद्दों को छूती है। पर अफ़सोस, इसकी अच्छी क्वालिटी भी इसे बड़े OTT प्लेटफॉर्म्स तक नहीं पहुँचा सकी । आख़िरकार, इसे निर्माता के अपने OTT मंच ‘बेजोड़’ पर रिलीज़ करना पड़ा । यह दिखाता है कि बेहतर कला और बाज़ार में पहुँच के बीच कितनी बड़ी खाई है।
परदे के पीछे की कठोर सच्चाई: उद्योग की चुनौतियाँ
मैथिली सिनेमा की कहानियों में दम है, पर पर्दे के पीछे की हकीकत बहुत कठोर है। यहाँ जुनून और प्रतिभा सिस्टम या सरकारी मदद की कमी के सामने थक जाता है।
पैसे की तंगी और ज़रूरी आँकड़ों का अभाव
मैथिली फिल्म निर्माताओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती टिकाऊ बजट के लिए संघर्ष करना है। मिथिला क्षेत्र में फिल्म बनाने के लिए ज़रूरी सुविधाओं (जैसे स्टूडियो या सिनेमा हॉल) की बहुत कमी है। सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि इंडस्ट्री के पास ठोस आँकड़ों की कमी है। सालाना कितनी फिल्में बनती हैं या कितना पैसा लगता है, इसका कोई पक्का हिसाब-किताब नहीं है। यह कमी बताती है कि यह इंडस्ट्री अभी भी बिना किसी ढाँचे के चल रही है।
बाज़ार का विरोधाभास: कमाई की जगह कला
मैथिली भाषा बोलने वाले करीब 13 मिलियन लोग हैं , फिर भी मैथिली सिनेमा कमाई का बाज़ार नहीं बना पाया । इसे ‘बाज़ार का विरोधाभास’ कहते हैं। इसकी तुलना पड़ोसी भोजपुरी सिनेमा से होती है। भोजपुरी सिनेमा बाज़ार में सफल हुआ, लेकिन उसका फोकस व्यावसायिक मनोरंजन पर ज़्यादा रहा, जबकि मैथिली सिनेमा ने बेहतर कला और ज़मीनी हकीकत को प्राथमिकता दी। मैथिली सिनेमा को अपनी पहचान बचाते हुए आर्थिक रूप से मज़बूत होना ज़रूरी है।
वितरण का संकट और OTT की अनदेखी
वितरण (रिलीज़) का संकट सबसे गंभीर है। मैथिली फिल्मों को बड़ी फ़िल्मों के सामने थिएटर में जगह मिलना नामुमकिन है । नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली मिथिला मखान को भी कोई बड़ा OTT प्लेटफॉर्म नहीं मिला । बड़े OTT प्लेटफॉर्म्स सिर्फ़ मुनाफ़ा चाहते हैं । मैथिली जैसी छोटी भाषाओं की फ़िल्में उनके लिए कमाई का ज़रिया नहीं मानी जाती हैं, इसीलिए वे इनमें निवेश करने से कतराते हैं ।
उम्मीद की किरण: आगे का रास्ता
इस नई लहर को अगर हमेशा के लिए ज़िंदा रखना है, तो इसका हल सरकारी मदद और स्थानीय लोगों की भागीदारी से आएगा।
आत्मनिर्भरता का मॉडल: ‘बेजोड़’ OTT प्लेटफॉर्म
वितरण संकट से लड़ने के लिए फिल्म निर्माताओं ने अपना OTT प्लेटफॉर्म ‘बेजोड़’ (BEJOD) शुरू किया । इसका मक़सद मैथिली, भोजपुरी और मगही कंटेंट को दुनिया भर के दर्शकों तक पहुँचाना है ।
सरकार को पहल करनी होगी: केरल मॉडल
लंबे समय तक टिके रहने के लिए बिहार सरकार को आगे आना होगा। डायरेक्टर गिरीश कासरवल्ली ने सुझाव दिया है कि बिहार सरकार को केरल मॉडल अपनाना चाहिए । केरल सरकार ने अपना सरकारी OTT प्लेटफॉर्म शुरू किया है, जो अच्छी मलयालम फ़िल्मों को दिखाता है ।
अगर हमारी सरकार भी इसी तरह का रास्ता अपनाए, तो यह तय हो जाएगा कि अच्छी मैथिली फ़िल्में सिर्फ़ मुनाफ़े के लिए नहीं, बल्कि संस्कृति को ज़िंदा रखने के लिए दर्शकों तक पहुँचें।
लोकल दर्शकों की ज़िम्मेदारी
यह बदलाव तभी आएगा जब मिथिला के लोग सिनेमा को सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, बल्कि अपनी भाषा और पहचान को बचाने का माध्यम समझेंगे। अपनी फ़िल्मों को देखना, उनके टिकट खरीदना, या ‘बेजोड़’ जैसे प्लेटफॉर्म का सपोर्ट करना, अब सिर्फ़ एक सांस्कृतिक कर्तव्य है।


















