बिहार में दुर्गा पूजा का अपना ही रंग है। यहाँ देवी दुर्गा को केवल माँ ही नहीं माना जाता, बल्कि बेटी समझा जाता है। मान्यता है कि नवरात्र में माँ दुर्गा अपने घर आती हैं। और जब दशमी का दिन आता है, तो बेटियों की तरह उन्हें विदा किया जाता है। यही कारण है कि इस पूजा में केवल धार्मिकता ही नहीं, बल्कि भावनाओं की भी गहरी छाया होती है।

पूजा की शुरुआत – कलश स्थापना, जयन्ती व लोक गीत
नवरात्र का पहला दिन होती है कलश स्थापना। सुबह–सुबह कलश में जल भर पर उसके ऊपर नारियल और आम के पल्लव रखे जाते हैं। कलश के पास जौ बोई जाती है। नौ दिनों तक जैसे–जैसे जौ अंकुरित होती रहती है। इस अंकुर को जयन्ती कहा जाता है जिसे लोग शुभ मानते हैं। विजयदशमी के दिन यही जयन्ती सबको दी जाती है, जिसे लोग अपने बालों में लगाते हैं।
दुर्गा सप्तशती और भक्ति का माहौल
पूरे नौ दिनों तक बिहार के लोग दुर्गा सप्तशती का पाठ करते है। मंत्रों की ध्वनि, धूप–दीप की खुशबू और श्रद्धा का वातावरण – यह सब मिलकर पूजा को और पवित्र बना देता है। बुजुर्ग कहते हैं कि सप्तशती का पाठ करने से घर में सकारात्मक ऊर्जा बनी रहती है और माँ दुर्गा की कृपा सदा बनी रहती है। इसके साथ-साथ मैथिली लोकगीत भी गाए जाते हैं। इसके अलावा, इस समय कई घरों में भगवान महादेव की पूजा भी की जाती है, जिसके लिए पार्थिव महादेव और मिट्टी का शिवलिंग बनाया जाता है।
पंडाल, मेला और देवी की मूर्तियाँ
अब बात करें उस दृश्य की, जिसका सबको इंतजार होता है – पंडाल और मूर्तियों की। बिहार के शहरों में बड़े–बड़े पंडाल सजते हैं। रंग–बिरंगी रोशनी, सजावट और भव्य मूर्तियाँ। देवी दुर्गा को महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है और उनके साथ लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश और कार्तिकेय की भी स्थापना होती है। पंडालों के आसपास मेला लगता है – झूले, खिलौनों की दुकानें, चाट, पकौड़े, मिठाइयाँ आदि की खुशबू। यह सिर्फ पूजा नहीं, बल्कि पूरे समाज का मेल–मिलाप है।
कन्या पूजन और खोइंच भरने की परंपरा
अष्टमी या नवमी के दिन मां को भोग लगाया जाता है और छोटी कन्याओं का स्वागत किया जाता है, उनके पैर धोए जाते हैं और टीका लगाया जाता है। फिर उन्हें खाना खिलाया जाता है – खीर, पूरी, फल और मिठाइयाँ रखी जाती हैं। यह परंपरा सिर्फ भक्ति का प्रतीक नहीं है, बल्कि बेटियों का सम्मान और समाज में उनके महत्व का संदेश भी देती है।
बिहार की दुर्गा पूजा की सबसे खास परंपरा है – खोइंच भरना। महाअष्टमी के दिन महिलाएँ माँ का सोलह श्रृंगार करती हैं। फिर मां को पान, सुपारी, फूल, हल्दी, अक्षत, दूब, मिठाई और श्रृंगार का सामान अर्पित करती हैं। इसे ही खोइंच भरना कहते हैं। माना जाता है कि खोइंच भरने से माँ घर–आँगन को खुशियों और समृद्धि से भर देती हैं।
विजयदशमी और जतरा
अष्टमी व नवमी की रौनक के बाद आता है दशहरा, जिसे बिहार में जत्रा कहा जाता है। सुबह–सुबह पूजा के बाद लोग अपने बालों में जयन्ती बाँधते हैं और बड़ों का आशीर्वाद लेते हैं। दुर्गा मां को चुरा दही का भोग भी लगाया जाता है। इसी दिन देवी दुर्गा की विदाई होती है। जैसे बेटियों को विदा किया जाता है, वैसे ही माँ को विदा किया जाता है, और माँ की मूर्ति का विसर्जन किया जाता है।
यह दिन सिर्फ माँ दुर्गा की विदाई का दिन नहीं है, बल्कि इसे श्रीराम की अयोध्या वापसी और लंका विजय के रूप में भी मनाया जाता है। स्थानीय मान्यता के अनुसार, दशमी के दिन नीलकंठ पक्षी को देखना बहुत शुभ माना जाता है।