मिथिला में त्योहार सिर्फ पूजा-पाठ नहीं, बल्कि परिवार और समाज को जोड़ने का मौका होते हैं। उनमें से सबसे खास है कोजागरा, जिसे लोग शरद पूर्णिमा भी कहते हैं। यह त्यौहार धन की देवी महालक्ष्मी को समर्पित है। नाम ही बताता है – “को जागर्ति?” यानी “कौन जाग रहा है?”। मान्यता है कि इस रात देवी लक्ष्मी धरती पर आती हैं और देखती हैं कि कौन जागकर उनकी पूजा कर रहा है। जो लोग पूरी लगन से जागते हैं, उन्हें सुख-समृद्धि और धन की प्राप्ति होती है।

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कोजागरा की शुरुआत और महत्व
मिथिला में कोजागरा सिर्फ पूजा का नाम नहीं है। यहाँ इसे रातभर जागरण और मस्ती के रूप में मनाया जाता है। लोग मिलकर भजन-कीर्तन गाते हैं, चौसर या पच्चीसी जैसे खेल खेलते हैं और प्रसाद बाँटते हैं।
यह त्यौहार खासकर नए शादीशुदा जोड़ों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। नवविवाहित दूल्हा-दुल्हन को समाज में ‘ग्रैंड एंट्री’ देने की रस्म होती है। दुल्हन के मायके से भेजा गया ‘भार’ यानी बड़ा तोहफ़ा, दूल्हे के घर आता है। इसमें पान, मखाना, दही, चूड़ा, मिठाई और पूरे परिवार के लिए नए कपड़े शामिल होते हैं। यह दिखाता है कि दोनों परिवार एक-दूसरे का सम्मान करते हैं और नए रिश्ते को सबके सामने मजबूत करते हैं।
कोजागरा की रात: दूल्हे का ‘चुमाओन’
भार आने के बाद, दूल्हे के घर में चुमाओन रस्म होती है। इसमें दूल्हे को नए कपड़े और पगड़ी पहनाई जाती है। घर की औरतें मंगल गीत गाती हैं और बुज़ुर्ग दही, दूर्वा और अक्षत से दूल्हे को आशीर्वाद देते हैं। यह आशीर्वाद लंबी उम्र, सुख-समृद्धि और रक्षा के लिए माना जाता है।
जागरण और खेल
रात भर जागरण को रोचक बनाने के लिए लोग चौसा या पचीसी खेलते हैं। इसमें परिवार और रिश्तेदारों के बीच खूब हँसी-मज़ाक और ठहाके लगते हैं। यही मिथिला की असली परंपरा है – पूजा, भक्ति और सामाजिक मेलजोल का संगम।
अरिपन कला
मिथिला में घर को सजाने के लिए अरिपन बनाया जाता है। यह जमीन पर खास चित्रकारी होती है, जो आंगन के मेन गेट से पूजा घर तक जाती है। इसमें कमल, लक्ष्मी जी के पदचिह्न और गोल घेरे बनाए जाते हैं। अरिपन सिर्फ सजावट नहीं, बल्कि देवी लक्ष्मी के स्वागत का प्रतीक है।
क्यों खास है मिथिला का कोजागरा
कोजागरा सिर्फ पूजा का दिन नहीं है। यह सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से भी महत्वपूर्ण है।
पान और मखाना सिर्फ प्रसाद नहीं, बल्कि मिथिला की पहचान और अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। कोजागरा के समय मखाना की खीर और पंजीरी बनाने की मांग बढ़ जाती है। मखाना से कई लोगों की रोज़ी-रोटी चलती है। नवविवाहित जोड़ों के लिए यह त्यौहार सामाजिक पहचान और परिवार के बीच मेलजोल का प्रतीक है। इस पर्व से बच्चों और युवाओं में अपनी संस्कृति के प्रति प्यार और जागरूकता भी बढ़ती है।
तिथि और शुभ समय
कोजागरा हर साल आश्विन पूर्णिमा को मनाया जाता है, यानी दशहरा खत्म होने के बाद। लक्ष्मी पूजा का सबसे शुभ समय निशिता काल यानी आधी रात का होता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस समय की पूजा से चार गुना अधिक फल मिलता है।
शरद पूर्णिमा की रात को चाँद की किरणों में अमृत बरसता है। इसी अमृत तत्व को लेने के लिए खीर को रातभर चाँदनी में रखा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसे खाने से अच्छी सेहत, सुख-समृद्धि और धन की प्राप्ति होती है।
मिथिला की संस्कृति और संदेश
कोजागरा मिथिला की लोक संस्कृति, परंपराएँ और सामाजिक मेलजोल का जीता-जागता सबूत है। यह हमें सिखाता है कि खुशहाली सिर्फ पैसे से नहीं, बल्कि परिवार और समाज के साथ मिलकर खुशियाँ बाँटने से आती है।
आज के समय में भी चाहे लोग शहर में रहें या विदेश में, मिथिला के लोग इस पर्व को उसी श्रद्धा और जोश से मनाते हैं। अरिपन, चुमाओन, भार, मखाना और पान जैसी परंपराएँ पीढ़ी दर पीढ़ी निभाई जाती हैं।