बिहार की संस्कृति में, देवउठनी एकादशी का दिन एक पर्व नहीं, बल्कि एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सामाजिक उत्सव है। इसे प्रबोधिनी एकादशी या देवोत्थान एकादशी भी कहा जाता है। यह वह पावन तिथि है जिसका इंतजार चार माह से हर आस्थावान व्यक्ति करता है। इस दिन यह मान्यता है कि सृष्टि के पालक भगवान विष्णु अपनी चार महीने की योग निद्रा (जिसे चातुर्मास कहते हैं) से जागते हैं, और इसी के साथ पृथ्वी पर सभी शुभ और मांगलिक कार्यों का पुनः आरंभ हो जाता है।
भगवान विष्णु का जागरण और चातुर्मास का समापन
हिंदू धर्म में, ऐसी मान्यता है कि आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी (देवशयनी एकादशी) से भगवान विष्णु क्षीर सागर में शयन के लिए चले जाते हैं। इन चार महीनों के दौरान (चातुर्मास), विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश जैसे सभी शुभ कार्य वर्जित हो जाते हैं। जब कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि आती है, तो भगवान विष्णु अपनी निद्रा का त्याग करते हैं और सृष्टि का कार्यभार संभालते हैं। इसीलिए, इस दिन को देवउठनी या देवोत्थान कहा जाता है, जिसका अर्थ है ‘देवताओं का उठना’।
बिहार में ‘अरिपन’ और विशेष पूजा
बिहार में इस पर्व को मनाने की अपनी एक विशेष और मनमोहक शैली है। इस दिन घर के आंगन या पूजा स्थल पर चावल के पिसे हुए घोल (जिसे कहीं-कहीं चंदन या अन्य रंगों से भी मिलाया जाता है) से अरिपन (पारंपरिक लोक कला रंगोली) बनाया जाता है। यह अरिपन मुख्य रूप से भगवान विष्णु के आगमन और स्वागत के लिए बनाया जाता है, जिसमें कमल, शंख, चक्र, गदा, सूर्य, चंद्रमा, और तुलसी विवाह के प्रतीकात्मक चित्र बनाए जाते हैं।
पूजा की विधि में एक मंडप बनाया जाता है, जिसे आमतौर पर गन्ने के चार डंडों से सजाया जाता है। इस मंडप में भगवान विष्णु के शालिग्राम स्वरूप की विधिवत पूजा की जाती है। इस दौरान भक्तजन “उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये…” जैसे मंत्रों का उच्चारण कर भगवान को योग निद्रा से उठने का आह्वान करते हैं। रात्रि में दीपमालाएं जलाई जाती हैं और भजन-कीर्तन का आयोजन होता है, जिसे ‘रात्रि जागरण’ भी कहा जाता है।

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व्रत की परंपरा: फलाहार और सात्विक भोजन
देवउठनी एकादशी के दिन भक्तजन कठोर व्रत रखते हैं। इस व्रत में अनाज (चावल, गेहूं) का सेवन पूरी तरह से वर्जित होता है। व्रत के दौरान मुख्य रूप से फलाहार का सेवन किया जाता है। बिहार में व्रत के भोजन में मखाना (फॉक्स नट्स), दूध, दही, फल, और शकरकंद का विशेष महत्व है। इस सात्विक भोजन का उद्देश्य शरीर और मन को शुद्ध कर, भगवान विष्णु के प्रति अपनी आस्था और समर्पण को व्यक्त करना है। यह व्रत पापों का नाश कर मोक्ष की ओर ले जाने वाला माना जाता है।
तुलसी विवाह: मांगलिक कार्यों की शुरुआत
देवउठनी एकादशी के ठीक अगले दिन (द्वादशी तिथि) तुलसी विवाह का भव्य आयोजन होता है। इस दिन शालिग्राम (भगवान विष्णु का पाषाण स्वरूप) और तुलसी माता का विवाह पूरे विधि-विधान और पारंपरिक शादी की धूमधाम के साथ कराया जाता है। तुलसी को भगवान विष्णु की ‘प्रिया’ (प्रिय पत्नी) माना जाता है।
यह विवाह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह इस बात का प्रतीक है कि अब भगवान उठ चुके हैं, और इसी के साथ विवाह-विवाह का सीजन (मांगलिक कार्यों का मौसम) भी शुरू हो गया है। जिन दंपत्तियों को कन्यादान का पुण्य प्राप्त नहीं होता, वे तुलसी विवाह करवाकर वह पुण्य प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार, देवउठनी एकादशी बिहार में धार्मिक आस्था, पारंपरिक लोक कला (अरिपन), व्रत और उत्सव का एक सुंदर संगम है, जो कार्तिक मास के आगमन के साथ ही लोगों के जीवन में नए उल्लास और शुभता का संचार करता है। यह दिन बताता है कि कैसे हमारी परंपराएं जीवन के हर पहलू को उत्सव से जोड़ती हैं।
Dev Uthani Ekadashi 2025 Date and time
| पर्व का नाम | तिथि (Date) | वार (Day) |
| देवउठनी एकादशी | 1 नवंबर 2025 | शनिवार |
| तुलसी विवाह | 2 नवंबर 2025 | रविवार |


















