जब भी कोई बड़ी यूनिवर्सिटी का नाम आता है तो दिमाग़ में सबसे पहले ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज या हार्वर्ड आता है। लेकिन क्या आपको पता है कि जब इनका नाम भी नहीं था, तब हमारे बिहार की धरती पर एक ऐसी यूनिवर्सिटी थी जो सब पर भारी थी—नालंदा विश्वविद्यालय।

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नालंदा में एडमिशन लेना खेल नहीं था
करीब 1500 साल पहले राजा कुमारगुप्त ने नालंदा की नींव रखी थी। धीरे-धीरे ये इतना बड़ा बना कि इसे दुनिया का पहला इंटरनेशनल रेजिडेंशियल यूनिवर्सिटी कहा जाने लगा।
लेकिन यहाँ पढ़ाई करना आसान नहीं था। गेट पर खड़े विद्वान ही सवाल पूछते थे और ज़्यादातर लोग बाहर ही छंट जाते थे। सिर्फ वही अंदर पहुँचते थे जिनके पास असली ज्ञान होता। उस समय यहाँ 10,000 से ज़्यादा स्टूडेंट और 2,000 के आसपास टीचर रहते थे। चीन, जापान, तिब्बत, कोरिया जैसे देशों से भी लोग यहाँ पढ़ने आते थे।
सिर्फ धर्म नहीं, साइंस और गणित भी
अक्सर लोग सोचते हैं कि नालंदा में सिर्फ बौद्ध धर्म पढ़ाया जाता था। लेकिन असलियत ये है कि यहाँ वेद, दर्शन, गणित, खगोल विज्ञान, मेडिसिन सब सिखाया जाता था। आर्यभट्ट जैसे बड़े विद्वान भी नालंदा के वाइस चांसलर रह चुके थे। जीरो जैसी खोज की जड़ें भी यहीं से जुड़ी थीं।
सबसे बड़ी लाइब्रेरी
नालंदा की सबसे बड़ी पहचान उसकी लाइब्रेरी थी, जिसका नाम था धर्मगंज। इसमें लाखों किताबें और पांडुलिपियाँ रखी थीं। कहते हैं कि एक इमारत नौ मंजिल की थी।
बख्तियार खिलजी का हमला
12वीं सदी में बख्तियार खिलजी ने नालंदा पर हमला कर दिया। उसने हजारों विद्वानों को मार डाला और पूरी यूनिवर्सिटी जला दी। किताबें इतनी ज्यादा थीं कि लाइब्रेरी महीनों तक जलती रही। उसी आग में भारत का बहुत सारा ज्ञान भी राख हो गया।
आज के नालंदा के खंडहर
आज जब आप नालंदा के खंडहर देखते हो तो लगता है जैसे हर ईंट उस दौर की कहानी सुना रही हो। ये जगह अब यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल है।
नई नालंदा की शुरुआत
2014 में पुराने नालंदा के पास नई नालंदा यूनिवर्सिटी खोली गई है। कई देश इसमें भारत का साथ दे रहे हैं। कोशिश है कि इसे फिर से दुनिया का बड़ा सेंटर बनाया जाए। नालंदा सिर्फ खंडहर नहीं है, ये सबूत है कि भारत हमेशा से ज्ञान की धरती रहा है।