लगभग 47 वर्षीय, पेशे से वकील स्वीटी सिंह किशनगंज के लिए एक जाना-पहचाना नाम हैं। वे राजपूत समुदाय से आती हैं, जो इस क्षेत्र में अल्पसंख्यक हैं। उनका राजनीतिक जीवन संघर्ष और दृढ़ता का प्रतीक रहा है। वह मुखर हैं, ज़मीनी स्तर पर सक्रिय रहती हैं और पार्टी के प्रति उनकी निष्ठा पर कभी कोई सवाल नहीं उठा। यही कारण है कि भाजपा, जो आमतौर पर प्रदर्शन के आधार पर टिकट तय करती है, किशनगंज में एक अलग ही राह पर चलती दिख रही है।

source: NDTV
चुनावी मैदान में लगातार असफलता
स्वीटी सिंह का चुनावी सफ़र किसी रोमांचक क्रिकेट मैच की तरह रहा है, जहाँ वह हर बार जीत के बेहद करीब आकर भी हार जाती हैं। आइए उनके पिछले चार चुनावों के नतीजों और हार के सटीक अंतर पर एक नज़र डालते हैं:
- 2010 विधानसभा चुनाव: कांग्रेस के डॉ. मोहम्मद जावेद के खिलाफ उन्हें 7,852 वोटों से हार का सामना करना पड़ा।
- 2015 विधानसभा चुनाव: इस बार भी नतीजा नहीं बदला और डॉ. मोहम्मद जावेद ने उन्हें 8,655 वोटों के अंतर से फिर शिकस्त दी।
- 2019 उपचुनाव: डॉ. जावेद के सांसद बनने के बाद यह सीट खाली हुई। इस बार AIMIM के कमरुल होदा ने उन्हें 10,517 वोटों के बड़े अंतर से हराया, और स्वीटी सिंह एक बार फिर दूसरे स्थान पर रहीं।
- 2020 विधानसभा चुनाव: यह मुकाबला सबसे करीबी और कांटे का था। स्वीटी सिंह कांग्रेस के इजहारुल हुसैन से महज़ 1,383 वोटों के मामूली अंतर से हार गईं।
भाजपा के अटूट विश्वास के पीछे की रणनीति
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि लगातार हार के बावजूद भाजपा स्वीटी सिंह पर दाँव क्यों लगा रही है? इसके कई संभावित कारण हैं:
- किशनगंज का मुस्लिम बहुल समीकरण: किशनगंज विधानसभा क्षेत्र में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या लगभग 65-70% है। इस समीकरण के कारण, यहाँ किसी भी हिंदू उम्मीदवार के लिए जीतना एक बड़ी चुनौती है। भाजपा जानती है कि इस सीट पर जीतना मुश्किल है, लेकिन स्वीटी सिंह हर चुनाव में पार्टी के लिए एक सम्मानजनक वोट शेयर लाती हैं।
- वोटों का ध्रुवीकरण: इस क्षेत्र में मुकाबला अक्सर ध्रुवीकरण पर आधारित होता है। स्वीटी सिंह की उम्मीदवारी हिंदू वोटों को एकजुट करने में मदद करती है। 2020 में AIMIM की मौजूदगी ने मुस्लिम वोटों को कांग्रेस और AIMIM के बीच विभाजित कर दिया था, जिससे मुकाबला बेहद करीबी हो गया था। भाजपा इसी समीकरण को फिर से भुनाने की उम्मीद कर रही है।
- एक समर्पित कैडर का अभाव: किशनगंज जैसे मुश्किल क्षेत्र में एक वफादार और संघर्षशील उम्मीदवार मिलना आसान नहीं है। स्वीटी सिंह ने एक दशक से अधिक समय तक पार्टी का झंडा बुलंद रखा है। वह हार के बाद भी क्षेत्र में सक्रिय रहती हैं। पार्टी एक नए चेहरे पर दाँव लगाकर इस स्थापित पकड़ को खोना नहीं चाहती।
- महिला और राजपूत कार्ड: स्वीटी सिंह का एक महिला और राजपूत होना भी एक सांकेतिक संदेश देता है। भाजपा यह दिखाना चाहती है कि वह सभी समुदायों और लिंगों का प्रतिनिधित्व करती है, भले ही उस क्षेत्र का जातीय समीकरण उसके पक्ष में न हो।
इस बार क्या हैं चुनौतियाँ और अवसर?
2025 का चुनाव स्वीटी सिंह के लिए “करो या मरो” जैसा हो सकता है। उनकी जीत की सबसे बड़ी उम्मीद मुस्लिम वोटों के बँटवारे पर टिकी है। अगर AIMIM या कोई अन्य मजबूत मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतरता है, तो वोटों का विभाजन हो सकता है, और एक करीबी मुकाबले में स्वीटी सिंह की नैया पार लग सकती है।
इसके अलावा, उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता, केंद्र और राज्य सरकार की विकास योजनाओं और अपने व्यक्तिगत संपर्कों पर भी भरोसा करना होगा। उन्हें यह साबित करना होगा कि वह केवल ध्रुवीकरण की राजनीति नहीं करतीं, बल्कि क्षेत्र के विकास के लिए भी एक ठोस विजन रखती हैं।
स्वीटी सिंह की कहानी भारतीय लोकतंत्र की उस खूबसूरती को दर्शाती है, जहाँ जीत-हार से परे भी संघर्ष और निष्ठा का सम्मान होता है। भाजपा का उन पर बार-बार भरोसा जताना यह दिखाता है कि राजनीति सिर्फ आंकड़ों का खेल नहीं है, बल्कि यह दृढ़ता, ज़मीनी पकड़ और एक लंबी रणनीति का भी नाम है। क्या स्वीटी सिंह इस बार किशनगंज का किला फतह कर पाएंगी? यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन एक बात तय है कि किशनगंज का यह चुनावी रण बिहार के सबसे दिलचस्प मुकाबलों में से एक होगा।