बड़े वादे और ज़मीनी हकीकत
हाल ही में सामने आए आँकड़े बिहार के विकास की एक गंभीर तस्वीर पेश करते हैं। वित्त वर्ष 2023-24 में जब कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्य लाखों करोड़ रुपये का IT निर्यात कर रहे थे, तब बिहार मात्र ₹0.74 करोड़ पर सिमटा हुआ था। यह विशाल अंतर केवल एक संख्या नहीं, बल्कि दशकों के अधूरे वादों, नीतियों की नाकामी और राज्य से प्रतिभा के निरंतर पलायन का प्रतीक है। इस कहानी के केंद्र में 2019-20 के वे बड़े-बड़े वादे हैं, जो विशेष रूप से बीजेपी के शीर्ष नेताओं द्वारा किए गए थे, जिनमें बिहार को एक नया आईटी हब बनाने का सपना दिखाया गया था। पटना के पास बिहटा में एक विशाल आईटी पार्क और दरभंगा-भागलपुर जैसे शहरों में STPI (सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क्स ऑफ़ इंडिया) केंद्र स्थापित करने की योजनाएँ घोषित की गईं। इन घोषणाओं ने युवाओं में उम्मीद जगाई कि शायद अब उन्हें रोजगार के लिए बाहर नहीं जाना पड़ेगा। लेकिन आज हकीकत यह है कि बिहटा का आईटी पार्क कभी ज़मीन पर उतर ही नहीं पाया। इसका सबसे बड़ा कारण राज्य और केंद्र सरकार के बीच तालमेल की कमी और ज़मीन अधिग्रहण की प्रक्रिया का पूरा न हो पाना था। राज्य सरकार की एजेंसी बियाडा (BIADA) इस प्रोजेक्ट के लिए ज़रूरी ज़मीन का अधिग्रहण करके केंद्र को सौंपने में विफल रही, जिसके चलते यह पूरी योजना प्रशासनिक सुस्ती और फाइलों में ही दफन हो गई। दरभंगा में एक छोटा STPI केंद्र ज़रूर खोला गया, लेकिन वह उस बड़े पैमाने के विजन का विकल्प नहीं बन सका जो हज़ारों नौकरियाँ पैदा करने की क्षमता रखता था।

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प्रतिभा का पलायन और खोए हुए अवसर
1इन अधूरे वादों का बिहार पर बहुत गहरा और विनाशकारी प्रभाव पड़ा है। इसका सबसे बड़ा नुक़सान ब्रेन ड्रेन (प्रतिभा का पलायन) के रूप में हुआ है। हर साल, बिहार के हज़ारों प्रतिभाशाली और शिक्षित युवा, इंजीनियरिंग और तकनीकी क्षेत्रों में डिग्री हासिल करने के बाद, राज्य में अवसरों की भारी कमी के कारण बेंगलुरु, हैदराबाद, पुणे और दिल्ली जैसे स्थापित IT हब की ओर पलायन करने को मजबूर हो जाते हैं। यह एक ऐसा चक्कर बन गया है जिससे निकलना मुश्किल हो रहा है: कंपनियाँ यहाँ निवेश करने से हिचकिचाती हैं क्योंकि उन्हें एक कुशल कार्यबल की कमी का डर होता है, और कुशल कार्यबल इसलिए चला जाता है क्योंकि यहाँ कंपनियाँ नहीं हैं। इसके अलावा, बिहार ने सिर्फ़ प्रत्यक्ष IT नौकरियाँ ही नहीं खोईं, बल्कि एक पूरे आर्थिक इकोसिस्टम को विकसित करने का अवसर भी गँवा दिया। एक ITपार्क अपने साथ होटल, रियल एस्टेट, परिवहन और अनगिनत सहायक सेवाएँ लाता है, जो स्थानीय अर्थव्यवस्था को कई गुना बढ़ा देती हैं। इन अवसरों के अभाव में, की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि और सरकारी नौकरियों पर ही निर्भर रह गई, और वह सेवा क्षेत्र की उस क्रांति का हिस्सा नहीं बन सकी जिसने भारत के कई अन्य राज्यों की सूरत बदल दी।
दूसरे राज्य कैसे बने IT के पावरहाउस?
यह समझना भी महत्वपूर्ण है कि दूसरे राज्य इस दौड़ में आगे क्यों निकल गए, जबकि बिहार पिछड़ गया। इसका कारण ऐतिहासिक दूरदर्शिता और सक्रिय नीति-निर्माण में छिपा है। 1990 के दशक में जब भारत में आईटी क्रांति की आहट हुई, तब कर्नाटक, आंध्र प्रदेश (जो बाद में तेलंगाना बना) और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने इस अवसर को तुरंत पहचाना। उन्होंने न केवल निवेशक-अनुकूल आईटी नीतियाँ बनाईं, बल्कि कंपनियों को टैक्स में छूट, सस्ती ज़मीन, और 24 घंटे बिजली जैसी ठोस सुविधाएँ भी प्रदान कीं। उन्होंने बेंगलुरु में इलेक्ट्रॉनिक सिटी और हैदराबाद में Hitech सिटी जैसे विश्वस्तरीय इंफ्रास्ट्रक्चर और समर्पित आईटी पार्क बनाए। इन राज्यों ने इंफोसिस, विप्रो और माइक्रोसॉफ्ट जैसी बड़ी “एंकर कंपनियों” को अपने यहाँ स्थापित होने के लिए प्रोत्साहित किया, जिनकी मौजूदगी ने एक चुंबकीय प्रभाव डाला और हज़ारों छोटी कंपनियों, स्टार्टअप्स और कुशल पेशेवरों को अपनी ओर आकर्षित किया। इसके विपरीत, उस महत्वपूर्ण दशक में बिहार राजनीतिक अस्थिरता और खराब कानून-व्यवस्था जैसी गंभीर चुनौतियों से जूझ रहा था, और आईटी जैसे आगे की सोच रखने वाले क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करना उसकी प्राथमिकता में कभी नहीं रहा। जब तक बिहार ने इस दिशा में सोचना शुरू किया, तब तक बाकी राज्य अपनी बढ़त को एक अभेद्य किले में बदल चुके थे।
उम्मीद की नई किरण: बिहार IT पॉलिसी 2024
अतीत की गलतियों और चूके हुए अवसरों से सीखते हुए, बिहार अब एक नई शुरुआत करने का प्रयास कर रहा है। हाल ही में लागू की गई बिहार आईटी पॉलिसी 2024 इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण और आक्रामक कदम है। यह नीति कागज़ पर बेहद आकर्षक दिखती है, जिसमें आईटी कंपनियों को राज्य में निवेश करने के लिए अभूतपूर्व प्रोत्साहन दिए गए हैं। इनमें पूंजी निवेश पर 30% की भारी सब्सिडी, ऑफिस के किराये पर 50% की छूट, पहले 5 वर्षों के लिए बिजली बिल पर 100% की सब्सिडी, और हर बिहारी कर्मचारी को नौकरी देने पर ₹20,000 का अतिरिक्त प्रोत्साहन शामिल है। यह नीति बिहार के लिए एक नई उम्मीद की किरण है, लेकिन असली चुनौती इसके प्रभावी क्रियान्वयन में है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सरकार इस बार सरकारी कामकाज में देरी और दूसरी रुकावटों को दूर करने के लिए आवश्यक राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखा पाएगी? यदि इस नीति को सही भावना और गति के साथ लागू किया जाता है, तो यह बिहार के युवाओं के लिए पलायन की त्रासदी को समाप्त कर सकती है और राज्य को अंततः विकास की उस दौड़ में शामिल कर सकती है जिसका वह हमेशा से हक़दार रहा है।
















