नेता को पार्टी का टिकट न मिलने पर रोना आ जाता है, तो वह सड़क पर लेटकर, कुर्ता फाड़कर या सरेआम आँसू बहाकर विरोध करता है । यह भावनात्मक उथल-पुथल दिखाता है कि उनके लिए यह कितना बड़ा नुकसान है । लेकिन सवाल यह है: क्या यही बेचैनी और रोना उन्हें तब महसूस होता है, जब वे बिहार के पढ़े-लिखे युवा की बेरोज़गारी देखते हैं, या जब अस्पताल में गरीब मरीज़ को बेड नहीं मिलता? यह हमदर्दी का फ़र्क ही आज बिहार की राजनीति की सबसे बड़ी सच्चाई है। यह राजनीतिक रोना सिर्फ़ एक व्यक्तिगत निराशा नहीं है, बल्कि एक सड़े हुए सिस्टम का लक्षण है, जहाँ राजनीतिक स्वार्थ लोक सेवा पर भारी पड़ गया है।

टिकट की कीमत: कुर्सी या करोड़ों का निवेश?
बिहार की चुनावी व्यवस्था में MLA का टिकट अब सेवा का साधन नहीं, बल्कि एक बहुमूल्य संपत्ति बन चुका है। नेताओं के लिए यह भविष्य में करोड़ों के निवेश का रास्ता है । यही वजह है कि जब टिकट कटता है, तो दुख इतना गहरा होता है। मीडिया रिपोर्ट्स और नेताओं के आरोपों से पता चलता है कि टिकट के लिए पैसे की उगाही की जाती है । एक पूर्व उम्मीदवार ने तो सार्वजनिक रूप से ₹2.7 करोड़ की मांग का आरोप लगाया था । चुनाव में धन बल (Money Power) के उपयोग को रोकने के लिए चुनाव आयोग को करोड़ों रुपये की अवैध शराब और नकद ज़ब्त करनी पड़ती है । यह दिखाता है कि टिकट की कीमत कितनी बढ़ चुकी है। जब नेता इतना बड़ा आर्थिक दाँव लगाता है, तो टिकट खोने का दर्द किसी वित्तीय त्रासदी (financial tragedy) से कम नहीं होता, इसलिए उसके आँसू भी सच्चे होते हैं, लेकिन उनका कारण सेवा नहीं, स्वार्थ होता है ।
जनता का दुख: बेरोज़गारी और पलायन की मार
जनता का दुख कहीं ज़्यादा गहरा और व्यापक है, लेकिन वह चुनावी एजेंडा पर नहीं आता। बिहार में बेरोज़गारी की मार सबसे ज़्यादा पढ़े-लिखे युवा को झेलना पड़ रहा है— (Post-Graduate) युवाओं में यह दर 19% तक है । इस सिस्टम की नाकामी का सबूत है कि 57% शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं , जिससे हज़ारों छात्र शिक्षा और रोज़गार के लिए राज्य से बाहर पलायन करने को मजबूर हैं । यह प्रवासी मज़दूरों का दुख है, जो बाहर जाकर भी ख़राब हालातों में जीने को मजबूर हैं । यह दर्द सामूहिक है, लेकिन नेता इसे अनदेखा कर देते हैं क्योंकि यह दर्द उन्हें वोट का फ़ायदा नहीं देता।
स्वार्थ नहीं, जवाबदेही की राजनीति
अगर हमें चुनावी व्यवस्था में सुधार लाना है और बिहार की दशा बदलनी है, तो नेताओं को उनका दर्द री-डायरेक्ट करना होगा। हमें सिस्टम को ऐसा बनाना होगा कि व्यक्तिगत नुकसान से ज़्यादा सार्वजनिक विफलता का डर हो। इसके लिए:
1) राजनीतिक फंडिंग में पूरी पारदर्शिता लानी होगी ताकि टिकट की कीमत कम हो सके।
2) नेताओं की जवाबदेही सीधे विकास के आँकड़ों (development metrics) से जुड़नी चाहिए। यानी, अगर 19% बेरोज़गारी का आंकड़ा नहीं सुधरता या स्कूलों में 57% पद खाली रहते हैं, तो यह सीधे नेता की कुर्सी के लिए राजनीतिक संकट बनना चाहिए। जिस दिन नेता अपनी कुर्सी जाने के डर को जनता के दुख से जोड़ लेगा, उसी दिन उसकी आँखों का पानी लोक कल्याण के लिए काम आएगा।
















